ज़न्नत और दोज़ख़ के नज़ारे
रचयिता - पं० प्रियव्रत विद्यालंकार
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ
इधर है ज़न्नत उधर है दोज़ख़ है जाग्हे दोनों जाने वाले।
विमान पर बैठ चल दिये इक बँधे खड़े हैं सताने वाले।।
इधर गले में हैं फूलमाला उधर यह हाथों में हथकड़ी हैं।
नज़र हैं आते नज़ारे दोनों ओ देख गोली चलाने वाले।।
थी गोद ख़ाली प्रभु की जिनके लिए वह जा बैठे जाने वाले।
पड़ा है दोज़ख़ की कोठड़ी में बँधा हुआ जेलख़ाने वाले।।
गई अक़ल अब बने हो पागल खुला है दोज़ख़ का पहिला दर यह।
वह देखो ज़न्नत में हँस रहे हैं अक़ल का सिक्का जमाने वाले।।
खुला जो दोज़ख़ का दूसरा दर नजा़रा कुछ और आयेगा तब।
लटकते फाँसी पै कैसे वह हैं बशर जो दोज़ख़ के जाने वाले।।
पड़े सड़ोगे क़बर में तुम जब खुला जो दोज़ख़ का तीसरा दर।
न उठने पावोगे तुम वहाँ से कुराँ पै ईमान लाने वाले।।
पुराना चोला बदल के वह तो नया ही रँग आजमायेंगे कुछ।
तुझे क़यामत के दिन तलक यह न कीड़े छोड़ेंगे खाने वाले।।
तुझे जलाने को देख दोज़ख़ की भट्टी शोले उगल रही है।
क़दम से ज़न्नत भी पाक़ उनके हुई जो हैं ख़ूँ बहाने वाले।।
न नाम लेवा न पानी देवा उधर कोई होगा चन्द दिन में।
झुके इधर उनके पाक़ क़दमों पै सारे हिन्दू कहाने वाले।।
जो आन रखनी हो हिन्दुओं की तो केसरीबाना डालो "प्रेमी"।
सुना रहे हैं जिगर के ख़ूँ की दिलों में मोहर लगाने वाले।।
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