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आत्मा के साकार-निराकार विषयक पक्ष का निर्णय



आत्मा के साकार-निराकार विषयक पक्ष का निर्णय

लेखक- प्रियांशु सेठ

[इस लेख में प्रमाण-संग्रह में स्वाध्यायशील विद्वान् श्री भावेश मेरजा जी ने मेरी पर्याप्त सहायता की है। अतः उनको सहर्ष धन्यवाद देता हूं।]

अनेक दार्शनिक विद्वानों का आत्मा के साकार-निराकार विषयक पक्ष में विचार भेद है। एक पक्ष आत्मा के निराकार होने का दावा करता है, तो दूसरा पक्ष आत्मा के साकार होने का दावा करता है। दर्शन का सिद्धान्त है कि जिस पक्ष का प्रतिषेध हो गया, वह निवृत्त हो जाता है; जो अवस्थित रह गया, निर्णय का स्वरूप उसी से अभिव्यक्त होता है। न्यायदर्शन में कहा है कि जिन हेतुओं से अपने पक्ष की सिद्ध का प्रमाण और दूसरे के पक्ष का खण्डन करना है, वह निर्णय कहलाता है। इस सैद्धान्तिक दृष्टि से हम दोनों पक्षों को तर्क और प्रमाण की कोटि में रखकर सत्याऽसत्य का निर्णय करेंगे।

पूर्वपक्षी- आत्मा एकदेशी होने से साकार है।
उत्तरपक्षी- यह आवश्यक नहीं है कि यदि एकदेशी वस्तुएं साकार होती हैं, तो व्यापक वस्तुएं साकार नहीं होती हैं। प्रकृति पूरे ब्रह्माण्ड में व्यापक है फिर भी वे साकार है; अतः आपका पक्ष हेत्वाभास के होने से अग्राह्य है।

पूर्वपक्षी- आत्मा परिच्छिन्न (अणु) होने से एकदेशी है इसलिए वह साकार है। सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समुल्लास में स्वामी दयानन्द जी लिखते हैं-
प्रश्न- जीव शरीर में भिन्न विभु है वा परिच्छिन्न?
उत्तर- परिच्छिन्न। जो विभु होता तो जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मरण, जन्म, संयोग, वियोग, जाना, आना कभी नहीं हो सकता। इसलिए जीव का स्वरूप अल्पज्ञ, अल्प अर्थात् सूक्ष्म है और परमेश्वर अतीव सूक्ष्मात्सूक्ष्मतर, अनन्त सर्वज्ञ और सर्वव्यापक स्वरूप है।
उत्तरपक्षी- महर्षि ने यहां परिमाण की दृष्टि से परिच्छिन्न कहा है, रूप की दृष्टि से नहीं। परिमाण तीन होते हैं- विभु, मध्यम, अणु। इसलिए यह सत्य सिद्धान्त है कि आत्मा अणु होने से एकदेशी है, लेकिन आप परिमाण गुण को रूप गुण समझने की भूल कर रहे हैं। महर्षि कणाद ने इन दोनों गुणों को अलग-अलग बताया है [देखो- वैशेषिकदर्शन, सातवां अध्याय, पहला आह्निक]। यदि आपने दर्शनशास्त्रों का अध्ययन किया होता तो यह भ्रान्ति न होती। परिमाण गुण साकार और निराकार दोनों में होते हैं। आत्मा और परमात्मा में भी परिमाण गुण है। इसमें शास्त्रीय प्रमाण है; देखो- कठ० १/२/२०, श्वेता० ३/२०, मुण्डक० ३/१/९, छान्दोग्य० ६/८/७, ६/१५/३ तथा वैशेषिक० ७/१/२२]। इन प्रमाणों के आधार पर ईश्वर को एकदेशी और साकार मानना क्या आपको वांछनीय है? इसका उत्तर यही है कि यहां आपको परिमाण गुण ही मानना होगा। पैंगल उपनिषद् में आया है-
आकाशवत् सूक्ष्मशरीर: आत्मा न दृश्यते वायुवत्।। -४/१२
अर्थात् आत्मा का सूक्ष्म शरीर आकाशवत् है और वायु के समान अदृश्य है।

पूर्वपक्षी- निर् और आङ्-पूर्वक (डुकृञ् करणे) इस धातु से ‘निराकार’ शब्द सिद्ध होता है। ‘निर्गत आकारात् स निराकारः’ जिस का आकार कोई भी नहीं और न कभी शरीर-धारण करता है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘निराकार’ है। यह स्वामी दयानन्दजी का मत है। महर्षि द्वारा प्रतिपादित निराकार की इस परिभाषा को आत्मा पर घटित करने पर उसे साकार नहीं मान सकते।
उत्तरपक्षी- इसका उत्तर ध्यानपूर्वक सुनिये। 'य इन्दति परमैश्वर्यवान् भवति स इन्द्रः परमेश्वरः’ जो अखिल ऐश्वर्ययुक्त है, इस से उस परमात्मा का नाम ‘इन्द्र’ है। जबकि अष्टाध्यायी (अध्याय ५, पाद ३, सूत्र ९३) में आत्मा को भी इन्द्र कहा गया है [इन्द्र आत्मा 'इति काशिकायाम्']। अब आप मेरे इन प्रश्नों के उत्तर दीजिये-
• क्या आप इन्द्र (परमेश्वर) के अखिल ऐश्वर्ययुक्त गुण-स्वभाव को आत्मा पर घटित करने का साहस करेंगे? कदापि नहीं। क्योंकि ऐसा करने से आपके सिद्धान्त खण्डित होंगे। ठीक इसी प्रकार परमात्मा के 'निराकार' नाम की जो व्याख्या है, आपने उसको आत्मा पर घटित कर दिया।
• क्या आप आत्मा और परमात्मा में अन्तर जानते हैं? स्वामी दयानन्दजी अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में लिखते हैं- "प्रथम समुल्लास में ईश्वर के ओङ्काराऽऽदि नामों की व्याख्या।" महर्षि के इस वचन से यह सिद्ध होता है कि उन्हें प्रथम समुल्लास में ईश्वर के अनेक नामों की व्याख्या अभीष्ट है, फिर आपका ईश्वर विषयक प्रकरण आत्मा पर घटित करना कहाँ की ईमानदारी है? अतः आपकी पोल खुल चुकी है। यहां आप इस कहावत "कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा", को चरितार्थ कर रहे हैं।

पूर्वपक्षी- ईश्वर निराकार होने से सर्वव्यापक है। यदि आप आत्मा को निराकार मानते हैं तो उसे सर्वव्यापक भी मानना होगा।
उत्तरपक्षी- क्या आप परमात्मा की तुलना आत्मा से कर रहे हैं? परमात्मा अनन्त गुण-कर्म-स्वभाव वाला है। वेदादि शास्त्रों में कहा है कि उस (जगदीश्वर) के तुल्य अन्य कोई नहीं है। आत्मा का गुण-कर्म-स्वभाव सीमित है। वह सर्व गुण-कर्म-स्वभाव से रहित है। यदि आप आत्मा को सर्वशक्तिशाली मानेंगे तो आपको परमात्मा के अस्तित्व को नकारना होगा। परमात्मा के अस्तित्व को नकारते ही आपके सिद्धान्त खण्डित होंगे और नास्तिकों के सारे दोष आपके पक्ष में होंगे। इसलिए आत्मा निराकार तो है लेकिन सर्वव्यापी नहीं।

पूर्वपक्षी- आत्मा और परमात्मा दोनों चेतन सत्ता है। अगर आत्मा निराकार होती तो फिर भारत में बैठे हुए मुझे अमेरिका की भी खबर आत्मा के द्वारा होती।
उत्तरपक्षी- यदि आप आत्मा को साकार मानेंगे तो उसे जड़ पदार्थ मानना होगा। यह शाश्वत सिद्धान्त है कि जड़ पदार्थ के अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ साकार नहीं होता। आत्मा चेतन और अप्राकृतिक पदार्थ है; अतः आपका तर्क कि भारत में बैठकर अमेरिका की खबर आत्मा द्वारा पाना चूँ-चूँ का मुरब्बा है।

ऊपर सिद्ध है, पूर्वपक्षी आत्मा के साकार होने के पक्ष में कोई प्रमाण न दे सका। अब हम आत्मा के निराकारत्व के पक्ष में कतिपय दार्शनिक विद्वानों की सम्मति प्रस्तुत करते हैं। यथा-

१. महर्षि दयानन्द जी की दृष्टि में जीवात्मा निराकार है। यथा-
• 'उपदेश मञ्जरी' (पूना प्रवचन) के चतुर्थ प्रवचन में महर्षि दयानन्द जी ने कहा है- "जीव का आकार नहीं तो भी जीव का ध्यान होता है वा नहीं?"
• "...तथा वह (जीव) भी निराकार और नाश से रहित रहता है।" [महर्षि दयानन्द सरस्वती का पत्र-व्यवहार, भाग १, पृष्ठ २१७]

२. स्वामी दर्शनानन्द जी ने आत्मा को निराकार माना है- "जीवात्मा भी निराकार है।" [दर्शनानंद ग्रंथ संग्रह; पृ० २६; १९९७ संस्करण]

३. सुप्रसिद्ध शास्त्रार्थ महारथी पण्डित बिहारीलाल शास्त्री अपनी पुस्तक 'निराकार साकार निर्णय' (प्रकाशन वर्ष १९६५; प्रकाशक- डॉ० राजेन्द्र कुमार) में जीवात्मा को मुक्तकण्ठ से निराकार बतलाते हैं-
• "निराकार जीवात्मा शरीर में गति करता है तो शरीर के कारण वह साकार नहीं कहलायेगा।" [पृ० ८]
• "आपका शरीर साकार है। आप (आत्मा) निराकार है।" [पृ० २६]

४. महान् दार्शनिक विद्वान् लेखक श्री पण्डित गंगाप्रसाद जी उपाध्याय का पक्ष भी जीवात्मा के निराकारत्व में है।
• "कुछ निराकार वस्तुयें भी एक देशी हो सकती हैं, परन्तु कोई स्थूल या साकार वस्तु सर्वदेशी नहीं हो सकती।" [आस्तिकवाद; पृष्ठ १८६; प्रथम संस्करण]
• उन्होंने अपनी 'धर्म सार' नामक हिन्दी पुस्तक में जीवात्मा को निराकार लिखा है- "जीवात्मा निराकार है। उसको मोटा, पतला, काला, पीला नहीं कह सकते।" [पृष्ठ ३४]
[टिप्पणी- प्रा० राजेन्द्र जी जिज्ञासु द्वारा संपादित 'गंगा ज्ञान सागर' (प्रकाशन वर्ष २००० ई०) के दूसरे खण्ड में उपाध्याय जी रचित 'धर्म-सार' पुस्तक का समावेश किया गया है। अत: जीवात्मा को निराकार बताने वाला यह उद्धरण 'गंगा ज्ञान सागर' (दूसरा खण्ड) के पृष्ठ ७३ पर भी पढ़ा जा सकता है।]

५. स्वामी सत्यप्रकाश जी ने १९३८ में महर्षि दयानन्द सरस्वती के दार्शनिक चिन्तन पर एक महान् ग्रन्थ अंग्रेज़ी में लिखा है जिसका शीर्षक है- A Critical Study of the Philosophy of Dayananda. इसी ग्रन्थ को बाद में अन्य प्रकाशकों ने Dayananda's outline of Vedic Philosophy आदि अन्य शीर्षकों से प्रकाशित किया है। स्वामी सत्यप्रकाश जी के उपर्युक्त अंग्रेज़ी ग्रन्थ के छठे प्रकरण का शीर्षक है- The Ego अर्थात् जीवात्मा। इस प्रकरण में स्वामी सत्यप्रकाश जी ने जीवात्मा के सम्बन्ध में लिखा है-
1. "Living matter need not be cellular. Take the case of an ultramicroscopic virus which can pass through even a filter efficient to stop bacteria. Who can say, these ultramicroscopic filtrable viruses which cause many diseases in animals and plants may be particular kind of bacteria, almost approaching molecular dimensions. But the living life within them is still of a finer dimension. We say that it is a point with no dimensions. It is a reality in itself. It exhausts no space while it is in space." [P.136, 3rd edition 1984]
2. "According to Dayananda, souls are dimensionless units while the Absolute Brahman is the dimensionless unity." [Ibid, P.136]
3. "Just as God is a dimensionless unity, all-pervading and active (chetan), similarly, the souls are dimensionless units pervaded by God." [Ibid, p. 139]

स्वामी सत्यप्रकाश जी ने यहां जीवात्मा को लंबाई, चौड़ाई आदि परिमाणों से रहित वर्णित किया है। उनकी दृष्टि में जीवात्मा उस बिन्दु जैसा है जिसके कोई परिमाण नहीं। उनका मन्तव्य है कि आकाश में अवस्थित होते हुए भी जीवात्मा कोई स्थान नहीं घेरता है। स्वामी सत्यप्रकाश जी ने यहां यह भी लिखा है कि महर्षि दयानन्द जी भी जीवात्मा को ऐसा ही- लंबाई, चौड़ाई आदि परिमाणों से रहित मानते हैं।

६. प्रसिद्ध विद्वान् स्वामी वेदानन्द तीर्थ अपने 'वैदिक धर्म' नामक पुस्तक में वेद का प्रमाण देते हुए जीवात्मा को "निराकार" बताया है-
अपादिन्द्रो अपादग्निर्विश्वे देवा अमत्सत।
वरुण इदिह क्षयत्तमापो अभ्यनूषत वत्सं संशिश्वरीरिव।। -ऋग्वेद ८/६९/११
अर्थ- (इन्द्र:) अखिलैश्वर्य सम्पन्न प्रभु (अपात्) चिह्न रहित=निराकार है (अग्नि:) चेतन जीव (अपात्) निराकार है (विश्वे देवा: अमत्सत) सब इन्द्रियां या सूर्य-चन्द्र आदि सुख के साधन हैं अथवा आत्मा और परमात्मा के स्वरूप को जानकर (विश्वे देवाः अमत्सत) सब विद्वान् मोक्षानन्द पाते हैं। (वरुणः इत् इह क्षयत्) वरुण=सर्व श्रेष्ठ भगवान् ही इस संसार में वास करते हैं। अथवा (वरुण: इह इत् क्षयत्) सर्व श्रेष्ठ भगवान् इसी संसार में=इसी देह में ही रहते हैं। (इव शिश्वरी: वत्सं सम् ) जिस प्रकार वर्धक शक्तियां बच्चे को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार (आपः तम् अभिअनूषत्) सब स्तुतिएं उसको प्राप्त होती हैं।

ईश्वर और जीव दोनों निराकार हैं। ईश्वर सर्वव्यापक भी है। उसे खोजने के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं। वह हमारे अन्दर वास करता है। जिस प्रकार अवस्था के कारण वर्धक शक्तियां बालक ही को विशेष रूप से बढ़ाती हैं, उसी प्रकार सारी स्तुतियां भी परमेश्वर की ही होती हैं, क्योंकि वही सकलगुणनिधान है। [पृष्ठ २०-२१; प्रकाशक- गोविन्दराम हासानन्द; १९६२ संस्करण]

७. श्री आचार्य आनन्द प्रकाश जी (आर्ष शोध संस्थान अलियाबाद, तेलंगाना), स्वामी श्री सत्यपति जी परिव्राजक के शिष्य हैं। आपने सांख्य, वैशेषिक आदि दर्शन शास्त्रों के हिन्दी में सरल सुगम भाष्य लिखे हैं। आपने सांख्य दर्शन के प्रथम अध्याय के २० से लेकर ५४ तक के ३५ सूत्रों को वैसे तो प्रक्षिप्त बताया है, पुनरपि ये सूत्र के प्रक्षिप्त होने के हेतु देते हुए उन पर अपनी महत्त्वपूर्ण टिप्पणियां भी दी हैं, जो पठनीय हैं। ५१वें सूत्र की समीक्षा में आप लिखते हैं-
"सांख्य के अनुसार प्रत्येक क्रियावान् पदार्थ मूर्त्त नहीं होता, अपितु व्यक्त क्रियावान् पदार्थ ही मूर्त्त होता है। अव्यक्त आत्मा क्रियावान् होते हुए भी मूर्त्त नहीं होता। इसलिए मूर्त्त पदार्थों के अन्य धर्मों की आत्मा में आशंका करना अनुचित है।" [पृ० ३५; प्रथम संस्करण]

८. सत्यार्थप्रकाश का विस्तृत भाष्य करने वाले सुप्रसिद्ध विद्वान् लेखक श्री स्वामी विद्यानन्द जी सरस्वती अपने ग्रन्थ 'सत्यार्थ भास्कर' के प्रथम भाग के पृष्ठ ८४६-८४७ पर ईश्वर का निराकारत्व तथा निराकार ईश्वर के द्वारा सृष्टि रचना - सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित इन दार्शनिक विषयों पर लिखे गए अपने विवरण में स्वामी विद्यानन्द जी ने जीवात्मा को स्पष्टतः निराकार लिखा है।

९. षड्दर्शन आदि आर्ष शास्त्रों के सुविख्यात विद्वान् श्री स्वामी विवेकानन्द जी परिव्राजक (निदेशक- दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़) ने अपने लेख "आत्मा साकार है, या निराकार" में आत्मा को निराकार सिद्ध किया है।

१०. आत्मा परमात्मा दोनों निराकार हैं।" -पण्डित बुद्धदेव मीरपुरी [मीरपुरी-सर्वस्व; पृ० १८१]

११. प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् स्व० आचार्य ज्ञानेश्वर आर्य 'दर्शनाचार्य' अपनी पुस्तक ईश्वर-जीव-प्रकृति में लिखते हैं-
• ईश्वर और आत्मा में यह समानता है कि दोनों ही चेतन, पवित्र, अविनाशी, अनादि, निराकार हैं। [पृष्ठ ४]
• जीवात्मा में कोई भार, रूप, आकार आदि गुण नहीं होते। [पृष्ठ १६]
• जैसे बिजली बड़े-बड़े यंत्रों को चला देती है ऐसे ही निराकार होते हुए भी जीवात्मा अपनी प्रयत्न रूपी चुंबकीय शक्ति से शरीरों को चला देता है। [पृष्ठ १९]

१२. स्वामी शान्तानन्द सरस्वती (एम०ए० दर्शनाचार्य) परमात्मा एवं जीवात्मा में समानता बतलाते हुए लिखते हैं-
"जीवात्मा का भी कोई आकार नहीं है। यह भी ईश्वर समान निराकार है। अर्थात् शरीर के समान किसी भी रूप से रहित है।" [परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति; पृष्ठ ३१; प्रथम संस्करण]

१२. 'वैदिक-पथ' (मासिक पत्रिका) के प्रधान सम्पादक डॉ० ज्वलन्तकुमार जी शास्त्री ने 'दयानन्द दर्शन' के पृष्ठ १६ पर आत्मा को "निराकार" लिखा है।

इस प्रकार ऐसे कई विद्वानों ने मुक्तकण्ठ से आत्मा के निराकारत्व का समर्थन किया है। उपरोक्त तर्क और प्रमाणों की दृष्टि से आत्मा का निराकारत्व पक्ष स्थापित होता है। अतः शास्त्रों का निर्णय यही है कि आत्मा निराकार है, ऐसा सबको निश्चय जानना चाहिए।

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