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यह विद्या का समय है



यह विद्या का समय है

【राजर्षि शाहू महाराज का दि० १९ अप्रैल १९१९ में उत्तर प्रदेश के कानपुर में अखिल भारतीय कुर्मी क्षत्रिय १३वीं समाजिक परिषद् का ऐतिहासिक भाषण】

हिंदी अनुवाद [मूल मराठी से]- महेश आर्य
सम्पादक- प्रियांशु सेठ

प्रिय क्षत्रिय बंधुओं!
मैं आपमें से ही एक हूं। मुझे मजदूर समझो या किसान समझो, हमारे पूर्वज यही काम करते थे। जो काम मेरे पूर्वज करते थे वही काम करने वाले लोगों का अध्यक्ष बनने के लिए मुझे आमंत्रित किया, उसके लिए मुझे बहुत खुशी हो रही है। मैं कोई ज्ञानी या विद्वान् नहीं, मेरे से ज्यादा विद्वान् लोग हैं। मेरी गुणवत्ता की तरफ ध्यान न देते हुए मैं केवल किसान और पराक्रमी छत्रपति शिवाजी महाराज और उनकी स्नुषा ताराबाई महारानी साहिबा उनके वंश का हूं, इसलिए अध्यक्ष पद का बड़ा सम्मान मुझे आपने दिया है। जिस समय आपकी आज्ञा मुझे मिली उस समय मुंबई में मुझे बहुत तेज बुखार था। लेकिन आप सबके आशीर्वाद से मैं जल्द ही ठीक हो गया। उसके साथ मेरे सामने पहाड़ जितनी आपत्ति आ खड़ी हुई। वह आपत्ति कौन-सी है, आपको लगता है, तो वह थी हिन्दी में भाषण करने की। तीन दिनों तक रेलगाड़ी में स्वाध्याय करके आपके सामने भाषण करने का निश्चय किया। मेरी मातृभाषा यह नहीं है और लिपी भी अपरिचित होने के कारण हमारे परमपूज्य स्वामी परमानंद जी मेरा भाषण पढ़कर सुनाएंगे। जो मेरे बिरादरी के भी हैं और मैं उनको पिता समान, गुरू समान मानता हूं। मेरे परमपूज्य खासेराव जाधव वह भी यहां तक आए हुये हैं, यह देखकर मुझे दोगुना आनंद हो रहा है। आपकी सेवा करने की मुझे शक्ति मिली है उसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करता हूं। आगे आपकी जैसी आज्ञा मिले वैसी सेवा करने के लिए मैं तैयार हूं।
मैं और एक विषय पर बात करने वाला हूं। इस विषय पर बात करने का यह स्थान नहीं है, परन्तु आपको आसपास क्या चल रहा है, उसपर आंखों पर पट्टी बांध लेना नहीं है। आजकल जो बखेड़ा चल रहा है वो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। अंग्रेज सरकार ने हमें विद्या का दान नहीं दिया होता तो यह झगड़ा कभी होता ही नहीं। सरकार विद्यारूपी ज्ञान हमें दे और उसके बदले हम उन्हें जहर खिलाएं, यह विसंगतपूर्ण व्यवहार नहीं है क्या? जिसने हमें विद्या का अमृत पिलाया, वो हमें परतंत्रता की बेड़ी से निसंदेह रिहा करेंगे; आपको जो चाहिए वह जिस प्रकार बच्चा अपने माता-पिता से मांग लेता है, उस प्रकार प्रेम से और जोर से सरकार से मांगो, वह जरूर देंगे। मुझे पूरा विश्वास है जो काम प्यार से होगा वह जोर-जबरदस्ती से कभी नहीं होता।
भारतवर्ष के प्रत्येक प्रांत में प्रगति होते हुए दिखाई दे रही है, यह बड़ी खुशी की बात है। हिंदुस्तान के प्रत्येक प्रांत में दिनों-दिन जाति सभा और धार्मिक समारोह अधिकाधिक होने लगी है। आजकल जितनी धार्मिक समारोह और जाति सभायें हैं, उसकी तरफ मैं बहुत ही आशावादी दृष्टिकोण से देख रहा हूं, उसकी उत्तरोत्तर प्रगति हो ऐसी मन से आशा कर रहा हूं। क्योंकि उसके द्वारा शिक्षण, सामाजिक सुधार, धर्म प्रचार, इस प्रकार की परोपकारी बातें हो गई हैं, हो रही हैं। आगे भी इन सभाओं का ध्येय ऊंचा रहा तो और भी उन्नति हो सकती है, ऐसा मुझे विश्वास है। इस जागृति का कारण क्या? इस प्रश्न‌ पर विचार करने से तीन महत्त्वपूर्ण कारण सामने दिखाई देगे; पहला और महत्त्वपूर्ण कारण यह कि ब्रिटिश सरकार राज्य, दूसरा अंग्रेजी शिक्षण और तीसरा धार्मिक आचार्यों का धर्म प्रचार।

भारतवासियों को यह याद रखना चाहिए कि इस ब्रिटिश सरकार के उपकार को न भूलते हुए आपको सदैव राजनिष्ठ रहना चाहिए। उसी प्रकार धार्मिक आचार्यों के उपकार भी नहीं भूलने चाहिए। विशेषकर जिन्होंने धार्मिक स्वराज्य देकर प्रजा को धार्मिक दासत्व से मुक्त कर दिया है, उस महर्षि दयानंद सरस्वती को भूलना मत।

अंग्रेजी शिक्षा से भारतीयों को तीसरी आंख आ गई है। यह कितना बड़ा फायदा है देखो! पहले हम कौन थे, हमारी क्या स्थिति थी, अब क्या स्थिति है, आगे क्या स्थिति होगी; ऐसी बातों का ज्ञान हो रहा है, यह बड़ी खुशी की बात है। भारतवर्ष में जो सभा, देश, जाति, धर्म, समाज-सुधारना आदि कार्य कर रहे हैं उसके लिए मेरी तहे दिल से सहानुभूति है। इन सब कार्य में मैं भाग लेता हूं इसी भावना से मैं इस सभा में आया हूं। अब विशेष कुछ न बोलते हुए अपने मुख्य विषय की तरफ आता हूं। हम जिस देश में रह रहे हैं उसका नाम आर्यावर्त्त है। इसे आर्यावर्त्त बोलने का कारण यह है कि पहले यहां आर्य लोग बसते थे। इस देश में रहने वाले लोगों को आर्य कहा जाता था। आर्यों का मूलस्थान तिबेट (त्रिविष्टप, तिब्बत) था। आर्य प्रथम दो वर्ण के थे; एक आर्यवर्ण, दूसरा दस्युवर्ण। यह सब एक ही माता-पिता की संतान थे।
आर्यों का गुण-कर्म-स्वभाव स्वीकार करते हुए कोई भी आर्य बन सकता था। और दस्यु के गुण-कर्म-स्वभाव स्वीकार करते हुए कोई भी दस्यु बन सकता था। आर्यो के कार्यों का विस्तार जिस प्रकार बढ़ने लगा वैसे कार्य करने के लिए चार वर्णों की स्थापना हुई। 'निरुक्त' में वर्ण का अर्थ इस प्रकार दिया है- 'वर्णो वृणोति'। "धर्माचरण से निचला वर्ण ऊपर के वर्ण में जा सकता है, वैसे ही ऊपर का वर्ण अधर्म के आचरण से नीचे के वर्ण में जाता है। वैदिक काल से महाभारत काल तक यही मर्यादा रही है।"

सभी वेदों को समझने के बाद अध्ययन करना; दूसरे को सिखाना; यज्ञ करना और कराना; दान देना और दान लेना यह ब्राह्मण का कर्म है। "शांति, तप, अंदर और बाहर से स्वच्छ रहना, क्षमा, ज्ञान, विज्ञान (ईश्वर, जीव, प्रकृति का ज्ञान), आस्तिक भाव यह ब्राह्मण का कर्म है।"
"प्रजा की रक्षा करना, प्रजा की रक्षा के लिए दान देना, यज्ञ करना, वेदों का पठन करना, युद्ध करना, युद्ध में चतुर रहना, न फंसना, युद्ध में पीठ न दिखाना, निर्भय होकर रहना, धैर्यवान् होना, विषयों में नहीं रमण होना, प्रजा के हित के लिए सर्वस्व न्यौछावर करना, ईश्वर पर विश्वास रखना यह क्षत्रिय का स्वाभाविक कर्तव्य है।"
"जानवरों को पालना और उसकी रक्षा करना, दान देना, यज्ञ कर्म करना, वेदों का सांगोपांग अध्ययन करना, देश-विदेश जाकर व्यापार करना, खेती करना यह वैश्य का कर्त्तव्य है।"
"शिल्प कला का ज्ञान अर्जित करना और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इनके काम में मदद करना यह शूद्र का कर्त्तव्य है।"

वैदिक काल में इस प्रकार स्वतंत्रता थी की जो कोई जिस वर्ण का काम करेगा उस वर्ण में उसे शामिल किया जाता था। वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन करना प्रत्येक स्त्री-पुरुष का अधिकार रहता था। वैदिक काल में हर वर्ग के ऋषि हुए है। जब तक स्त्रियां मंत्र पठन किया करती थीं, तब तक यह आर्यावर्त्त एक स्वर्ग के समान था। 'स्त्रियां और शूद्रों को वेद को पढ़ना नहीं है' ऐसी कपोलकल्पित श्रुति का आवाज आकाश से नहीं आता था। उस समय शूद्रों ने वेद सुने तो उसके कान में सीसा पिघला कर डाला नहीं जाता था। जिस समय से वर्ण व्यवस्था वंश परंपरागत पंजीकृत हुई तब से एक वर्ण के मनुष्य को दूसरे वर्ण के मनुष्य का काम करना कठिन होने लगा और अपने वर्ण का कर्त्तव्य करने से धीरे-धीरे विमुख होने लगे। समाज की व्यवस्था बिगड़ने लगी। आखिर में जो वर्ण व्यवस्था गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित थी वह जन्म पर होकर रह गई। इस प्रकार इन नियमों के विरुद्ध कोई आवाज उठाने की हिम्मत न करें इसलिए श्रुति में मिलावट की गई। यानी वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित है यानि मां-बाप ब्राह्मण हैं तो उसे ही ब्राह्मण कहे। दूसरे किसी को बिल्कुल ब्राह्मण समझना नहीं है। वैसे ही जिसके मां-बाप क्षत्रिय हैं वही क्षत्रिय, फिर उसमें वह क्षत्रिय गुण हो या न हो। जिसके मां-बाप वैश्य वही वैश्य। जिसके मां-बाप शूद्र वही शूद्र, फिर उसमें कितनी भी उच्च गुणवत्ता हो‌। जो पुराने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य गुण-कर्म-स्वभाव से श्रेष्ठ बनकर जन्म अभिमान से ग्रसित होने लगे वैसे-वैसे दूसरे मनुष्य का ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य होना समाप्त हो गया। इस प्रकार हिंदू की अधोगति हो गई। वह इतिहास पाठक पूरी तरह जानते हैं। इस समय वह चार वर्ण से पांच हजार जातियों में बदल गया। इसके कारण हिंदू बलहीन होने लगा। हर एक जाति दूसरे जाति से खाना-पीना करते नहीं है, विवाह संबंध भी नहीं करते। एक जाति पर जुल्म होने लगा तो दूसरे जाति वाले सिर्फ देखते रहते हैं, उनको जरा भी दया नहीं आती। सच कहूं तो मनुष्य प्राणी की एक ही जाति है। जाति के लक्षण शास्त्रकारों ने इस प्रकार लिखे हैं- "जिसमें समान भाव, समान आकृति और समान उत्पत्ति है; उसे ही एक जाति समझना चाहिए।" इसी प्रकार व्याकरण शास्त्र में भी लिखा हुआ है कि जिसकी आकृति समान उसकी जाति एक; जैसे गाय, घोड़ा, हाथी, पिप्पल इत्यादि।
आज हिंदू लोगों की धारणा है कि हिंदुस्तान के अलावा और कहीं वर्णव्यवस्था नहीं है। यह हमारा भ्रम है। ऐतिहासिक जगत इसके बिल्कुल उल्टा है। हमारी तरह ही दूसरे भी आर्य वंशज हैं। हमारी तरह ही दूसरे देशों में भी वर्ण व्यवस्था है। हमारे और उनमें फर्क सिर्फ इतना है कि दूसरे देशों में वर्ण व्यवस्था गुण-कर्म पर आधारित है, पर हमारे यहां वह जन्म पर आधारित है। उनके यहां वर्णों का परिवर्तन इसी जन्म में होता है, पर हमारे यहां जन्म-जन्मान्तरों बाद भी परिवर्तन नहीं होता। यह सिर्फ रूढ़िवाद के कारण हुआ है। वेदादि शास्त्र तो इससे बिल्कुल उलट हैं। मनुस्मृति में लिखा है कि "क्षत्रियों के वंश में उपनयन संस्कार का लोप होने के कारण और ब्राह्मणों में सिर्फ देखने भर से संस्कारहीन हो जाता है, उनको क्या दोष देना?"
पौण्ड्र, चौण्ड्र, द्रविड़, कंबोज, यवन, शक, पारद, पह्लव, चीना, किरात, दाद इत्यादि का ब्राह्मणादि वर्ण संस्कार का लोप होने के कारण वह संस्कारहीन हो गये। दूसरे देशों में दूसरे जाति के नाम से पहचाने जाने लगे। इनमें से कुछ म्लेच्छ और कुछ आर्य भाषा बोलते थे। उन सबको दस्यु कहने लगे। केवल अन्य जातियों में वेदोक्त संस्कार का लोप होने के कारण ही नहीं, ब्राह्मणों की अज्ञानता और अत्याचार के कारण भी म्लेच्छ जाति उत्पन्न हो गई।
विष्णु पुराण के चौथे अध्याय में लिखा है कि त्रिशंकु के वंश में बाहु नाम का राजा हो कर गया। वो हह्य, ताल, जंघादि क्षत्रियों से हार कर अपने रानी के साथ जंगल में चला गया । आगे कुछ दिन बाद वह मर गया। तब वह रानी उसी के साथ सती जाने लगी। वह गर्भवती होने के कारण ऋषि ने उसे सती जाने से रोक दिया और कहा "हे रानी तेरे पेट से पराक्रमी पुत्र जन्म लेगा, वह सब क्षत्रियों का नाश करेगा।" रानी ने सती जाने का इरादा छोड़ वह ऋषि के आश्रम में रहने लगी। उस ऋषि का नाम था वशिष्ठ। आगे उसे पुत्र हुआ। उसका नाम सगर रखा। ऋषि ने उसे शस्त्र विद्या सिखाई। सगर बड़ा होने के बाद मां से उसे पूरी हकीकत पता चली। तब वह क्षत्रियों से युद्ध करने के लिए निकल पड़ा, और क्षत्रियों को जर्जर करके छोड़ा। उसके कारण सब क्षत्रिय वशिष्ठ जी को शरण गये। तब ऋषि वशिष्ठ जी ने सगर से कहा 'हे पुत्र, अब इन क्षत्रियों को मत मारो। मैंने इन क्षत्रियों को द्विजत्व से और धर्म से अलग कर दिया है। इनके जीते जी मार दिया हूँ। यह अब जीवित मुर्दे हैं, और सगर ने इन क्षत्रियों का वंश (वर्ण) परिवर्तन कर दिया। बहुत से लोगों की शिखा काट दी इनको 'यवन ' यह नाम दिया। इसके साथ ही वेदादि शास्त्र को पढ़ने का अधिकार भी छीन लिया। क्षत्रिय धर्म से उनको निकाल बाहर कर दिया। इसी प्रकार परशुराम के अत्याचार के कारण भी बहुत से क्षत्रिय, क्षत्रिय वर्ण से पृथक होकर दूसरी जातियां बन गईं।
हमारे इस देश में हजारों जातियां बन गई। वैसे ही किसी प्रकार की समय हमारी भी जाति क्षत्रिय से पृथक हो गई होगी। इस प्रकार इस जगत में ऐतिहासिक काल में कितनी बार परिवर्तन हो गया है, हो रहा है और आगे भी होता रहेगा। यह नैसर्गिक नियम है। महाभारत काल तक यहां के क्षत्रियों का विवाह दूसरे देश के क्षत्रियों से होते रहते थे। 'महाभारत' ग्रंथ में यह दिखाई देता है। अर्जुन का विवाह उलूपी के साथ, धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी के साथ ऐसे हो चुके हैं। महाभारत के पूर्व भी कई राजाओं का विवाह सम्बंध दूसरे देश के राजाओं के साथ हुआ है, ऐसा इतिहास बताता है।

अब आगे विशेष कुछ न कहते हुए अपने विषय के संबंध में दो शब्द कहने हैं। अगर तुम अपने दिल से क्षत्रिय धर्म स्वीकार करना चाहते हैं तो आपका मैं तहे दिल से स्वागत करता हूं। आप क्षत्रिय बन चुके हैं। क्षत्रिय गुण-कर्म-स्वभाव का स्वीकार कीजिये। अपने देश के दुःखी प्रजा के रक्षा के लिए तैयार हों। आपको क्षत्रिय होने से वेदादि शास्त्रों की तरफ से अधिकार है। परमेश्वर ने आपको साधन भी उपलब्ध करवा दिए हैं। मुझे लगता है हर एक मनुष्य चार वर्ण की योग्यता प्राप्त कर लेगा तब देश में सुधार होगा। परंतु हमें एक बात याद रखनी चाहिए, वो वह कि यह विद्या का समय है। सबके अंतःकरण में ज्ञान का प्रकाश पड़ा है। सिर्फ जन्म से क्षत्रिय और ब्राह्मण हुए लोगों का अब कोई अदर नहीं करेगा। आप गुण-कर्म से क्षत्रिय बनो। सिर्फ नाम के क्षत्रिय की कतार में आपका नाम लगवाकर क्षत्रियों का भरना मत करना। इसी तरह हम क्षत्रिय थे, हमने अमुक वंश में जन्म लिया वगैरा-वगैरा ऐसे वितंडावाद में मत पड़ना। आपका किसी के साथ संबंध हो या न हो यह कोई उन्नति करने का मार्ग नहीं है। जनगणना रिपोर्ट के अधिकारी और दूसरे कोई भी आपको कुछ भी कहें, उसकी चिंता मत करना। आपकी जाति में वेदोक्त संस्कार, वेदोक्त कर्म का प्रसार और सदाचार की वृद्धि करना। अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दो, असहाय और गरीब भाई-बन्धु की मदद करो। 
कुर्मी क्षत्रिय समाज में विधवा विवाह प्रचलित हुआ देख मुझे बहुत ही खुशी हो रही है। हमारी क्षत्रिय जाति भ्रूणहत्या, व्यभिचार इन पापों से सुरक्षित रहेगा ऐसा मेरा विश्वास है। यह हमारा अपना धर्म है। मनुष्य समाज को निर्दोष करने के लिए है। वेदादि शास्त्रों का हमें आधार है। हमारी सरकार ने भी विधवा विवाह का कायदा पास कर दिया है। जिस जाति में धर्म का प्रचार नहीं उस जाति में भ्रूणहत्या, व्यभिचार आदि पाप हो रहे हैं। हजारों बच्चे प्रत्येक वर्ष मर रहे हैं। यह कितनी दुःख की बात है!
भारतवासी लोक उन्नति के तीन मुख्य साधन समझते हैं। पहला परदा , दूसरा विवाह निषेध और तीसरा किसी के साथ मिलकर भोजन न करना।
क्या आश्चर्य है! कोल्हापुर राज्य संस्थापक महारानी ताराबाई, महारानी सती अहिल्याबाई, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, महारानी कमलाबाई आदि क्षत्रिय स्त्रियों ने राज्य का रथ चलाया है। युद्ध के मैदान में जाकर शत्रुओं के साथ लड़ाई की है। यह सब काम परदे के पीछे रहकर केवल असंभव होता। आज भी परदा कि प्रथा सब देश में नहीं है। महाराष्ट्र, मद्रास, गुजरात वगैरा प्रांत में परदा बिल्कुल नहीं है। दूसरे प्रांत में कुछ थोड़े जातियों में ही परदा है। परदा प्रथा के कारण स्त्रियों में वीरता के गुणों का सर्वथा नाश हो जाता है। हमारी आजीविका विशेषकर कृषि कर्म पर आधारित थी, यह सुनकर मुझे बड़ा आनन्द हो रहा है। कृषि कर्म इतना पवित्र है कि वैदिक काल में, साल में एक बार चक्रवर्ती राजा और उनके मंत्री कृषि कर्म को प्रोत्साहित करने के लिए खुद हल चलाते थे। जिस कार्य में भूमी में एक दाना बोने से हजारों दाने मिलते हैं और जिस कृषि कर्म पर सारी मनुष्य जाति अपनी जीविका करती है, तो कृषि कर्महीन अथवा बुरा है ऐसा मैं बिल्कुल नहीं मानता। मैं मेरे युवराज को कृषि विद्या पढ़ाने के लिए विलायत और अलाहाबाद के कृषि स्कूल में भेजा था। आप तो जानते ही हैं कि कृषि कर्म से दोहरा उत्पन्न मिलता है। मनुष्य खुद सुखी होकर सभी मनुष्य जाति को भी सुख देता है। कृषि कर्म का संबंध पशुपालन और उनकी रक्षा से भी आता है। इसके लिए पशुपालन के संबंध में बहुत-से काम करना बाकी हैं। दूध, घी वगैरह से यह देश समृद्ध होना चाहिए।
कृषि कर्म करके क्षत्रियों के तेज को बाधा उत्पन्न होती है ऐसी कोई बात नहीं। जिस कर्म से मनुष्य समाज सुव्यवस्था और उन्नति की ओर बढ़ती हो वह कर्म नीच है यह समझना मुझे बिल्कुल रास नहीं आता। यूरोप में किसानों को प्रतिष्ठित समझा जाता है। वहां के किसान राज्य सरकार के उच्च स्तर पर नौकरी करते हैं। वैसे ही उधर शिल्पकला करने वाले लोगों की बड़ी प्रतिष्ठा है। जो आज चर्मकार या भंगी है उनको नीच ऐसा कहने का साहस किसी में नहीं है। उसका कारण यह है कि शिल्पकला सर्वथा उनके ही हाथों में होती है। यहां निर्धन और अज्ञानी लोग के रहते शिल्पकला का सुधार कैसे होगा? सुशिक्षित बी०ए०, एम०ए० हुए लोग यह काम डर के कारण हाथ में लेते नहीं है, क्योंकि हमको शूद्र कहा जाएगा, हमें निची जाति का समझा जाएगा। इस प्रकार से देश का ऐश्वर्य कैसे बढ़ेगा? ऐश्वर्य के बिना देश की उन्नति कैसे होगी?

हे परमेश्वर! हमारे देश के लोगों को सद्बुद्धि देकर उनके अंतःकरण में ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न हो, हम सब मनुष्य सद्गुणी, चिरायु होकर भाईचारे से रहें। दूसरे का दुःख वह अपना दुःख, दूसरे का सुख वही हमारा सुख ऐसा विचार मन में उमड़े। सब लोग मिलकर शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति कर सारे संसार को स्वर्ग बनायेंगे। अंत में कुर्मी क्षत्रियों को धन्यवाद देकर हमारी मनोकामना पूरी करो और हमारी जाति की सभा की दिनों-दिन बढ़ती होवे, ऐसी ईश्वर से प्रार्थना करता हूं।

____________________

[1] राजर्षि शाहू महाराज [जन्म- २६ जून १८७४ ; मृत्यु- ६ मई १९२२] कोल्हापुर नरेश थे। आप वीर छत्रपति शिवाजी के वंशज थे। आप पहले सत्यशोधक समाज के समर्थक थे, लेकिन आर्यसमाज के विचारों से आप इतने प्रभावित हुए कि सन् १९१८ में आपने कोल्हापुर में एक आर्यसमाज मन्दिर भी बनवाया था। आर्यसमाज के प्रचार में आप सदा अग्रणी रहते थे। आपने अपना प्रेरणास्त्रोत स्वामी दयानन्द सरस्वती जी को बताया है। आपके भाषण विचारोत्तेजक होते थे, जिसे सुन श्रोताओं में एक नई ऊर्जा का संचार होता था। निचली जातियों को रोजगार प्रदान करने के लिए सन् १९०६ में आपने 'शाहू छत्रपति बुनाई' और 'स्पिनिंग मिल' शुरू की। डॉ० अम्बेडकर के जीवन-निर्माण में आपका अप्रतिम योगदान है।

[2] निरुक्तकार ने 'वर्णो वृणोति' [२/१/४] के सिद्धान्त की घोषणा करके मनुष्यों को उसके गुण-कर्मानुसार चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र में यथायोग्य वरण होने का अधिकार दिया। इन चार वर्णों में तप, शौच, सत्य, दान, पवित्र, वेदाध्ययन से युक्त, यज्ञकर्त्ता, ज्ञान-विज्ञान में रुचि और निष्कलंक व्यक्ति को ब्राह्मण [ऋ० ७/५६/८, ता० १५/४/८, गीता १८/४२]; बलशाली, यज्ञकर्त्ता, राज्य-व्यवस्था व प्रजा की रक्षा, दिव्यगुण-युक्त, पराक्रमी और दानी व्यक्ति को क्षत्रिय [ऋ० १०/६६/८, महाभारत शांति० १८९/५, गीता १८/४३]; कृषि, पशुपालन, व्यापार, वेदाध्ययन से युक्त और दानी को वैश्य [यजु० ९/४०, मनु० १/९०]; सर्वकर्मपरायण, वेदज्ञान-रहित, अनाचारी, मिथ्यावादी, लोभी, शिल्पकला और परिश्रम करके जीविका चलाने वाले को शूद्र [शतपथ० ३/६/२/१०, महाभारत शांति १८९/८, मनु० १०/१२०] कहा है। वर्ण-व्यवस्था में धर्म-आचरण करने वाला मनुष्य शूद्र से ब्राह्मण तक के वर्ण को और अधर्म-आचरण करने वाला मनुष्य ब्राह्मण से शूद्र तक के वर्ण को प्राप्त होता है [शूद्रो ब्राह्मणतामेति... मनु० ]। ऋषियों का यह पूर्ण विश्वास था कि मानव समाज के लिए इससे सुन्दर और न्यायपूर्ण व्यस्वथा अन्य नहीं हो सकती।

[3] महर्षि दयानन्द सरस्वती जी अपने पाखण्ड-खण्डिनी ग्रन्थ 'सत्यार्थप्रकाश' में लिखते हैं- "वेद पढ़ने-सुनने का अधिकार सब को है। देखो! गार्गी आदि स्त्रियां और छान्दोग्य में जनश्रुति शूद्र ने भी वेद 'रैक्यमुनि' के पास पढ़ा था और यजुर्वेद के २६वें अध्याय के दूसरे मन्त्र में स्पष्ट लिखा है कि वेदों के पढ़ने और सुनने का अधिकार मनुष्यमात्र को है।" [एकादश समुल्लास]
यहां ध्यातव्य है कि ऋग्वेद के ब्राह्मण 'ऐतरेय-ब्राह्मण' के रचयिता 'ऐतरेय' दासीपुत्र थे। कवष, ऐलूष आदि भी दासीपुत्र होने के बावजूद वेदमन्त्रों के प्रचारक हुए। इन प्रमाणों के विरुद्ध जाकर यह प्रचारित करना कि स्त्री या शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं है, मनुष्यजाति के पतन का कारण बना।

[4] न्यायदर्शन में आया है- “आकृतिर्जातिलिङ्गाख्या” [२/२/६७]। इसका अर्थ है कि जिससे जाति के चिन्ह प्रकट होते हैं, वह आकृति है अर्थात् आकृति ही जाति को बतलाती है; जैसे मनुष्य की आकृति को देखकर मनुष्य जाति का ज्ञान होता है और वह व्यक्ति के अंगों की बनावट और उसके स्वरूप से पहचानी जाती है।
जाति का लक्षण बतलाते हुए आगे सूत्रकार कहते हैं- “समानप्रसवात्मिका जाति:”।।६८।। अर्थात् जो भिन्न-भिन्न पदार्थों में समता का भाव है या जिनकी उत्पत्ति (बनावट) एक जैसी हो, वह जाति है और वह आकृति और बनावट की समता जानी जाती है।

•महर्षि पतञ्जलि ने अपने ग्रन्थ 'महाभाष्य' के चतुर्थ अध्याय, प्रथम पाद में जाति का लक्षण विस्तार से बताया है।

[5] महाभारत में पौण्ड्र, पह्लव, शक आदि जातियों के सम्बन्ध में वर्णन मिलता है कि ये लोग ब्राह्मणों के क्रोध से शूद्र हो गए।

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