छ: दर्शनों में परस्पर विरोध व अविरोध पर विचार [आर्यसमाज के महान् शास्त्रार्थ महारथी पण्डित शिवशंकर शर्मा 'काव्यतीर्थ' द्वारा गुरुकुल कांगड़ी के द्वितीय दिवस के अधिवेशन मार्च सं० १९६४ वि० में पढ़ा निबन्ध] सम्पादक- प्रियांशु सेठ (वाराणसी) हिन्दी अनुवादक [संस्कृत से]- डॉ० प्रीति विमर्शिनी, पाणिनि कन्या महाविद्यालय (तुलसीपुर, वाराणसी) छः दर्शनों को लेकर आज यहां पर विचार होगा, यह देखकर हमारे अन्तःकरण में अत्यन्त उल्लास उत्पन्न हो रहा है। प्रत्येक वर्ष यदि इसी प्रकार दोषज्ञ परीक्षक जन प्रेम से इकट्ठे होकर संसार के उपकार के लिए प्रमेय के निश्चय के लिए प्रयत्नशील हों तभी सन्तानों का पथ राजपथ के समान निरुपद्रव हो जायेगा, ऐसी मैं आशा करता हूं। मनुष्य स्वल्पज्ञ होते हैं इसलिए पग-पग पर स्खलित व भ्रमित हो जाते हैं इसमें सन्देह नहीं, किन्तु आज भी इस देश में स्वयं को सर्वज्ञ मानने वाले हजारों की संख्या में हैं यह इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। भला ईश्वर की अनन्त विभूति का परिच्छेद करने में कौन समर्थ हो सकता है, परन्तु विशेष रूप से ज्ञान ग्रहण करने के लिए ही परमेश्वर ने इस मानवी ...