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महर्षि दयानन्दकृत ओंकार-अर्थ-अनुशीलन


महर्षि दयानन्दकृत ओंकार-अर्थ-अनुशीलन

लेखक- प्रियांशु सेठ (वाराणसी)

ईश्वर का निज नाम 'ओ३म्' है। इस नाम में ईश्वर के सम्पूर्ण स्वरूप का वर्णन है। यदि परमात्मा कहें तो इसके कहने से सब जीवों का अन्तर्यामी आत्मा इसी अर्थ का बोध होता है, न कि सर्वशक्ति, सर्वज्ञान आदि गुणों का। सर्वज्ञ कहने से सर्वज्ञानी, सर्वशक्तिमान् कहने से ईश्वर सर्वशक्तियुक्त है, इन्हीं गुणों का बोध होता है, शेष गुण-कर्म-स्वभाव का नहीं। 'ओ३म्' नाम में ईश्वर के सर्व गुण-कर्म-स्वभाव प्रकट हो जाते हैं। जैसे एक छोटे-से बीज में सम्पूर्ण वृक्ष समाया होता है, वैसे ही 'ओ३म्' में ईश्वर के सर्वगुण प्रकट हो जाते हैं। महर्षि दयानन्दजी महाराज अपने ग्रन्थ 'सत्यार्थप्रकाश' के प्रथम समुल्लास में ओ३म् को "अ, उ, म्" इन तीन अक्षरों का समुदाय मानते हैं। स्वामीजी को अ से अकार, उ से उकार तथा म् से मकार अर्थ अभीष्ट है। इन शब्दों से उन्होंने परमात्मा के अलग-अलग नामों का ग्रहण किया है- अकार से विराट, अग्नि और विश्वादि। उकार से हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि। मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञादि।
संस्कृत भाषा में पदान्तरों के अक्षर लेकर स्वतन्त्र शब्दों का प्रयोग होता है। इसपर शौनक ऋषि का मन्तव्य है- "शब्दों में धातु, उपसर्ग तथा अन्य शब्दों के अवयवों की भी ध्वनियां होती हैं। वे शब्द एक धातु के भी बने होते हैं और कुछ शब्द दो धातुओं से बनते हैं तथा कुछ शब्द बहुत धातुओं से बनते हैं। वे शब्द पांच प्रकार के होते हैं (बृहद्देवता २/१०३,१०४)।"
१. धातु से बने शब्द- अग्नि आदि।
२. धातुओं से बने शब्दों से बनाये हुए शब्द- रत्नधा + तमम्।
३. उपपद रखकर बने शब्द- यन् ज:= यज्ञ:।
४. वाक्य से बने शब्द- इति + ह + आस= इतिहास।
५. बिखरे हुए अवयवों से बने शब्द- अ उ म्= ओ३म्।

महाभाष्यकार ने भी स्पष्ट घोषणा की है- 'बह्वर्था अपि धातवो भवन्ति (१/३/१)'। जब एक-एक धातु के अनेक अर्थ होंगे तो उनसे निष्पन्न शब्द भी अनेकार्थवाची होंगे। अन्य भाषाओं में भी दूसरे शब्दों के अवयव लेकर एक स्वतन्त्र शब्द का निर्माण हुआ है। उदाहरण के लिए, जैसे अंग्रेजी भाषा में एक शब्द 'News' है, जिसका अर्थ है- समाचार-खबर अर्थात् चारों तरफ से जो बातें आती हैं उसको समाचार कहते हैं। लेकिन इनका आदि अक्षर अंग्रेजी भाषा में चारों दिशाओं के नामों को भी प्रकट करता है-
North- उत्तर दिशा
East- पूर्व दिशा
West- पश्चिम दिशा
South- दक्षिण दिशा

इसी तरह "अ, उ, म्" इन तीनों अक्षरों का समुदित रूप यह 'ओ३म्' है। यथा-
सोऽयमात्माऽध्यक्षरमोंकारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा, अकार, उकार मकार इति।। -माण्डूक्यो० ८
अर्थात्- यह आत्मा (परमात्मा) अक्षर में अधिष्ठित है। वह अक्षर ओंकार=ओ३म् है। वह ओंकार मात्राओं में अधिष्ठित है और वे मात्राएं अकार, उकार, मकार हैं।

माण्डूक्योपनिद् का ऐसा सिद्धान्त प्रतीत होता है कि यह दो धातु और एक उपसर्ग से 'ओ३म्' शब्द की सिद्धि मानती हो। श्रुति ९,१०,११ में "अप" धातु से 'अ', "उत्" उपसर्ग से 'उ' और "मा" वा "मि" धातु से 'म्' लेकर "ओ३म्" शब्द की सिद्धि करती है। यथा-
"अकार: प्रथमा मात्रा-आप्ते:, आदिमत्वाद् वा।
उकारो द्वितीया मात्रा उत्कर्षात्, उभयत्वाद् वा।
मकारस्तृतीया मात्रा-मिते:, अपीतेर्वा।"
अर्थ- अकार प्रथम मात्रा है, अकार का अर्थ है- व्याप्ति और आदि। उकार दूसरी मात्रा है, उकार का अर्थ है- उत्कर्ष और उभयादि। मकार तीसरी मात्रा है, मकार का अर्थ है- मिति और अपीति आदि।
[आप् धातु या आदि शब्द का आ ह्रस्व करके- 'अ'। उत्कर्ष या उभय शब्द का- 'उ'। मिति अथवा अपीति- समाप्ति सूचक का प् 'म्' होकर- 'म्'।]

महर्षि के अर्थ पर विचार-
महर्षि दयानन्द द्वारा किए प्रत्येक शब्द का अर्थ उनके स्वाध्याय-चिन्तन को हमारे समक्ष प्रबलता से स्थापित करता है। आर्ष शास्त्रों के अनुसार अकार, उकार तथा मकार का महर्षिकृत अर्थ परस्पर सम्बन्ध रखनेवाला है। देखो-

१. शतपथब्राह्मण (६/२/२/३४, ६/३/१/२१, ६/८/२/१२, ९/१/१/३१) में 'विराडग्नि:' आया है; अतः विराट् अग्नि का नाम है। शतपथब्राह्मण (७/३/१/२२) ने 'इयं (पृथिवी) वाऽग्नि:' लिखकर घोषणा की है कि यह पृथ्वी अग्नि है। आगे पृथ्वी को विश्व बताते हुए शतपथब्राह्मण (९/३/१/३) में कहा है- 'स य: स वैश्वानर:। इमे स लोका ऽइयमेव पृथिवी विश्वं' अर्थात् ये लोक वैश्वानर है, यह पृथिवी विश्व है। शतपथब्राह्मण ने 'वैश्वानरो वै सर्वेऽग्नय: (६/२/१/३५, ६/६/१/५)' अर्थात् सब अग्निया वैश्वानर है लिखकर अग्नि को वैश्वानर स्वीकार किया है। विश्व और वैश्वानर शब्द का एक ही अर्थ है। इसकी पुष्टि करते हुए शतपथ० (१३/३/८/३) में कहा है- 'इयं (पृथिवी) वै वैश्वानर:' अर्थात् यह पृथिवी वैश्वानर है।
विश्व शब्द पर स्वामी दयानन्दजी का मन्तव्य है- "विशन्ति प्रविष्टानि सर्वाण्याकाशादीनि भूतानि यस्मिन्। यो वाऽऽकाशादिषु सर्वेषु भूतेषु प्रविष्टः स विश्व ईश्वरः (स०प्र०, प्रथम समुल्लास) अर्थात् जिसमें आकाशादि सब भूत प्रवेश कर रहे हैं अथवा जो इन में व्याप्त होके प्रविष्ट हो रहा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम 'विश्व' है।"
निरुक्तभाष्यकार दुर्गाचार्य का वैश्वानर शब्द पर भी यही मत है। यथा-
"प्रत्यृता सर्वाणि भूतानि" विश्वानि ह्यसौ भूतानि प्रति ऋत: प्रविष्ट इत्यर्थ:। "तस्य" विश्वानरस्य अपत्यं "वैश्वानर:"। -निरुक्त, दैवतकाण्ड ७/२१/१ पर दुर्गाचार्यकृत टीका, पृष्ठ ६०२, श्रीवेंकटेश्वर प्रेस, मुम्बई, १९६९ से प्रकाशित
वैश्वानर शब्द का एक यह भी अर्थ है कि जो पूर्णरूप से सब भूतों में प्रविष्ट है, उसको वैश्वानर कहते हैं।
अतः अकार से विराट्, अग्नि और विश्वादि का ग्रहण शास्त्रसम्मत है।

२. शतपथब्राह्मण (६/२/२/५) में आता है- 'प्रजापतिर्वै हिरण्यगर्भ:' अर्थात् हिरण्यगर्भ प्रजापति है। शतपथ० ने 'स एष वायु: प्रजापति (८/३/४/१५)' प्रजापति को वायु स्वीकार किया है। ऐतरेय० (४/२६) में भी कहा है- 'वायुर्ह्योव प्रजापतिस्तदुक्तमृषिणा पवमान: प्रजापतिरीति।' तैत्तिरीय ब्राह्मण में वायु को तैजस बताया है '(तेजो वै वायु: -३/२/९/१)'।
इससे स्पष्ट है कि हिरण्यगर्भ, वायु और तैजस नामों का उकार से ग्रहण शास्त्रों के अनुकूल है।

३. माण्डूक्योपनिषद् की श्रुति ११ में मकार को 'माङ्' धातु का कहा है, अर्थात् जो मापनेवाला, न्याय व शासन करनेवाला है। न्याय वा शासन करनेवाला ईश वा ईश्वर है। अथर्ववेद (११/४/१) में उसे सबका स्वामी बताया है- 'यो भूत: सर्वस्येश्वरो यस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम्'। दर्शनशास्त्र के अनुसार ईश्वर के बिना कर्मफल की व्यवस्था नहीं हो सकती, यथा- 'ईश्वर: कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् (न्याय० ४/१/१९)'। इससे सिद्ध है कि ईश्वर ही शासनकर्त्ता व न्यायकर्त्ता है। शतपथब्राह्मण (६/१/३/१७) में आया है- 'आदित्यो वा ईशान: आदित्यो ह्यस्य सर्वस्येष्टे।' स्पष्ट है कि ईशान और आदित्य पर्यायवाची हैं। बृहदारण्यक० (४/३/२१) के अनुसार- 'अयं पुरुष प्राज्ञेनात्मना सम्परिष्वक्तौ न बाह्यं किञ्चन् वेद नान्तरम्' अर्थात् यह पुरुष (जीवात्मा) प्राज्ञेनात्मना (परमात्मा) के साथ सम्पर्क में आया हुआ न कुछ बाहर जानता है, न अन्दर। इससे स्पष्ट हुआ कि जीवात्मा आप्तकाम, आत्मकाम और निष्काम होकर सभी दुःखों से छूट जाता है अर्थात् यह न्यायरूपी फल उसे ईश्वर देता है। सिद्ध है, प्राज्ञ और ईश्वर पर्यायवाची हैं।
अतः मकार से आदित्य, ईश्वर और प्राज्ञ का ग्रहण स्पष्ट है।

संस्कृत के प्रायः सभी शब्द आख्यातज हैं- प्रकृति-प्रत्यय के योग से निष्पन्न हैं। इसी कारण वे यौगिक कहाते हैं। आदि, उभय और अपिति के आधार पर महर्षि का किया अर्थ वेदादिशास्त्रों के अनुकूल है। गोपथब्राह्मण (१/५) में तो 'अ, उ, म्' को क्रमशः ब्रह्मा (उत्पत्तिकर्त्ता), विष्णु (पालनकर्त्ता) और शिव (संहारकर्त्ता) का वाचक बताया है। मैत्र्युपनिषद् (६/८) में आया है- 'एवं हि खल्वात्मेशान: शम्भुर्भवो रुद्र: प्रजापतिर्विश्वसृग्घिरण्यागर्भ:'। यहां आत्मा, ईशान, शम्भु, भव, रुद्र, प्रजापति, विश्वसृक् और हिरण्यगर्भ परमात्मा के नाम हैं। यजुर्वेद (३२/१) में परमात्मा के अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रमा, शुक्र, ब्रह्म, आप: और प्रजापति- ये नाम हैं। तात्पर्य यह है कि अ, उ, म् पृथक्-पृथक् ईश्वर के भिन्न-भिन्न नामों के वाचक अर्थात् परमात्मवाची हैं।

महर्षि के अर्थ में उपनिषद् का प्रमाण-
माण्डूक्योपनिषद् में अकार का सम्बन्ध विश्व, उकार का सम्बन्ध तैजस एवं मकार का सम्बन्ध प्राज्ञ से किया है। यथा-
१. जागरितस्थानो वैश्वानरोऽकार: प्रथम मात्रा (माण्डूक्य० ९) अर्थात् ओ३म् की प्रथमा मात्रा अकार= 'अ' है। उसका सम्बन्ध जागरित स्थान से है और वह वैश्वानर= विश्वानर= विश्वसम्बन्ध है।
२. स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीय मात्रा (माण्डूक्य० १०) अर्थात् ओ३म् की द्वितीया मात्रा उकार= 'उ' है। उसका सम्बन्ध स्वप्नस्थान से है और वह तैजस् है।
३. सुषुप्तस्थान: प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा (माण्डूक्य० ११) अर्थात् ओ३म् की तृतीया मात्रा मकार= 'म्' है। उसका सम्बन्ध सुषुप्तस्थान से है और वह प्राज्ञ है।

माण्डूक्योपनिषद् की इस श्रुति में जीवात्मा के तीन अवस्थाओं का वर्णन है जिसका सम्बन्ध ईश्वर से है।
जागरितावस्था- सब पादों से पहला विश्वनामापाद तीनों पादों में व्यापक है अर्थात् जीव की स्वप्न, सुषुप्ति आदि सब अवस्थाओं में जाग्रतावस्था का प्रभाव रहता है।
स्वप्नावस्था- तैजस नाम का जो दूसरा पाद है यह विश्व पाद की अपेक्षा उत्कृष्ट और विश्व तथा प्राज्ञ दोनों के बीच में है। जो इस पाद को भलेप्रकार जानता है वह अपनी ज्ञान-सन्तति को नित्य बढ़ाता है।
सुषुप्तावस्था- तीसरा पाद प्राज्ञ अपिति का देनेहारा है। इसको जानने के बाद जीवात्मा लय हो जाती है।

यहां एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब यहां जीव की अवस्था का प्रकरण है तो अकार, उकार और मकार का सम्बन्ध ईश्वर से किस प्रकार है? इसका उत्तर यह है कि उन तीनों अवस्थाओं का मूल ईश्वर ही है। आदि (जागरित)= वह जीव शरीर में व्याप्त होने से कामनाओं को प्राप्त होता है और इस प्रकार वेद जानता है। उभय (स्वप्न)= वह परमात्मा से सम्बन्ध करता है जिससे बाह्य ज्ञान अल्प होता है और सुख की वृद्धि होती है। अपिति (सुषुप्ति)= बाहर का सम्बन्ध टूटने के बाद बाह्य ज्ञान बन्द हो गया (जीवात्मा के अस्तित्व की अनुभूति हो गयी) जिससे वह दुःखों से छूट गया और सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्म में लीन हो गया।

ओंकारोत्पत्ति एवं सिद्धि (भ्रान्ति-निवारण)
ओ३म् परमात्मा का मुख्य नाम है, वेदादि सत्य शास्त्र ऐसा कथन करते हैं। 'ओ३म्' शब्द की सिद्धि शब्द-तत्त्वदित् पाणिनि ने 'अव' धातु से माना है। उन्होंने धातुपाठ में "अव" धातु के रक्षादि १९ अर्थ बताए हैं। उणादिकोष के सूत्र "अवतेष्टिलोपश्च (१/१४१)" के अनुसार अव धातु से 'मन्' प्रत्यय और प्रत्यय के 'टि' का लोप हो जाता है तब "अव+म्" ऐसी स्थिति होती है। तब ["ज्वरत्वरस्त्रिव्यविभवामुपधायाश्च" -शब्दानु० ६/४/२०] "अव" की जगह ऊठ् आदेश होकर 'उ+म्' स्थिति होती है और गुण होकर "ओ३म्" बनता है। गोपथब्राह्मण के प्रपाठक १ की २६वीं कण्डिका में "आप्लृ" धातु से "ओ३म्" शब्द की सिद्धि की है। यहां भिन्न-भिन्न धातुओं से 'ओ३म्' शब्द की सिद्धि में सन्देह नहीं करना चाहिए कि आचार्यों में परस्पर-विरोध है। देखिए, पाणिनि ने यह कहीं नहीं कहा है कि केवल 'अव' धातु से ही ओंकार की सिद्धि होती है। उनके व्याकरण के अनुसार अव, आप् आदि सब धातु से ओ३म् सिद्ध हो सकता है [द्रष्टव्य- अष्टाध्यायी ६/३/१०९]।
जैसे श्वास के बिना मनुष्य एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता, वैसे ही ओंकार की उपासना के बिना मनुष्य जीवित रहते हुए भी मृतक के समान है। यदि परमात्मा वेदज्ञान् का प्रकाश नहीं करता तो यह अल्पज्ञ जीव दुःख के बन्धन से कभी न छूट सकता। इसलिए परमात्मा ने वेदज्ञान का प्रकाश किया एवं इसमें 'ओ३म्' नाम को उपासनीय बताकर जीवात्मा के कैवल्यप्राप्ति का द्वार खोला है। यजुर्वेद (४०/१५) में आया है- "ओ३म् क्रतो स्मर" अर्थात् हे कर्मशील जीव! मरण समय में उसी ओ३म् का स्मरण कर। ऋग्वेद (१/१६४/३९) में कहा है- "ईश्वर की ओर चले बिना कोई व्यक्ति मृत्यु के पार नहीं होता।" माण्डूक्योपनिषद् की पहली श्रुति ही में "परमेश्वर का प्रधान और निज नाम 'ओ३म्' को कहा है, अन्य सबको गौणिक नाम बताया है।" छान्दोग्योपनिषद् (१/४/१) ने यहां तक कह दिया है कि "(ओ३म्) जिसका नाम है और जो कभी नष्ट नहीं होता, उसी की उपासना करनी योग्य है, अन्य की नहीं।" कठोपनिषद् का ऋषि कहता है- "सब वेद सब धर्मानुष्ठानरूप तपश्चरण जिसका कथन और मान्य करते और जिसकी प्राप्ति की इच्छा करके ब्रह्मचर्याश्रम करते हैं, उसका नाम 'ओ३म्' है (वल्ली २, मन्त्र१५)।" आगे कहा है- "इसका रूप (आँखों से) देखने के लिए नहीं है, न कोई आँखों से इसको देख सकता है। यह हृदय से, बुद्धि से, मन से प्रकाशित होता है। जो जानते हैं, वे अमृत हो जाते हैं (कठ० ६/९)।"

ओ३म् की उत्पत्ति के सम्बन्ध में ऐतरेयब्राह्मण ५वीं पञ्चिका के ३२वें खण्ड में आता है-
"प्रजापतिरकामयत प्रजायेय भूयान् स्यामिति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इमान् लोकान् असृजत पृथिवीम् अन्तरिक्षम् दिवम्। तान् लोकान् अभ्यतपत्। तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रीणि ज्योतींषि अजायन्त। अग्निरेव पृथिव्या अजायत। वायुरन्तरिक्षात्। आदित्यो दिव:। तानि ज्योतींषि अभ्यतपत्। तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रयो वेदा अजायन्त। ऋग्वेद एव अग्नेरजायत। यजुर्वेदो वायो:। सामवेद आदित्यात्। तान् वेदान् अभ्यतपत्। तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रीणि शुक्राण्यजायन्त। भू: इत्येव ऋग्वेदादजायत। भुव इति यजुर्वेदात्। स्व: इति सामवेदात्। तानि शुक्राण्यभ्यतपत्। तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रयो वर्णा अजायन्त। अकार: उकार: मकार: इति। तान् एकधा समभरत्। तत् ओम् इति।"

अर्थ- प्रजापति परमात्मा ने इच्छा की कि मैं प्रजा के द्वारा विस्तार को प्राप्त हो जाऊं। उसने ईक्षण किया। उसने ईक्षण करके इन लोकों को उत्पन्न किया- पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक को। उन लोकों का ईक्षण किया। ईक्षण किये गए उन लोकों से तीन ज्योति:स्वरूप ज्ञानी हुए। पृथिवी से अग्नि ही हुआ। वायु अन्तरिक्ष से। आदित्य द्यु लोक से। उन ज्योति:स्वरूपों का ईक्षण किया। उन ईक्षण किये हुए ज्योति:स्वरूपों से तीन वेद उत्पन्न हुए। अग्नि ऋषि से ऋग्वेद ही उत्पन्न हुआ। यजुर्वेद वायु ऋषि से। सामवेद आदित्य ऋषि से। उन वेदों का ईक्षण किया। उन ईक्षण किये हुए वेदों से तीन शक्तिशाली शब्द निकले। भू: यह ही ऋग्वेद से निकला। भुवः यह यजुर्वेद से। स्व: यह सामवेद से। उन शक्तिशाली शब्दों का ईक्षण किया। उन ईक्षण किये हुए शब्दों से तीन वर्ण निकले, अ उ म्। उन तीनों को एक प्रकार से एकत्र इकट्ठा किया। वह ओ३म् बन गया।

इस कण्डिका का सार यह है कि परमात्मा ने अपनी ईक्षण शक्ति से तीन लोकों को उत्पन्न किया। फिर उस लोक से उत्पन्न हुए ऋषियों को वेदों का प्रकाश किया। (त्रयोवेदा:) यहां तीन वेद से तात्पर्य त्रयी विद्या का जानना चाहिए। (त्रय:+वर्णा:) इन वेदों से ईश्वर के सर्वगुणों के वर्णन करनेवाले तीन शब्द उत्पन्न हुए। वर्ण शब्द विशेषणगर्भित पद है। इसका अर्थ अक्षर नहीं है किन्तु ब्रह्म का हम लोग जिस पद से वर्णन कर सकते हैं उसे वर्ण कहते हैं। (अकार:) अकार (उकार:) उकार (मकार:) मकार ये तीन पद हैं। उन तीनों पदों के मिलने पर 'ओ३म्' पद बना।

महाराज मनु कहते हैं-
अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापति:।
वेदत्रयान् निरदुहत् भूर्भुवः स्वरितीति च।। -मनु० २/७६
अर्थ- प्रजापति ने अकार, उकार और मकार को ऋक् यजु साम इन्हीं वेदों से तथा भू: भुवः स्व: ये महाव्याहृतियों दुहीं - सार भूत निकाली।

ईक्षण शक्ति पर विचार
परमात्मा के ईक्षण शक्ति का वर्णन ऋग्वेद १०/१९०/१, वेदान्तदर्शन १/१/५, ऐतरेयोपनिषद् १/१, छान्दोग्योपनिषद् ६/२/३ इत्यादि स्थलों पर भी आया है। इस सम्बन्ध में महर्षि दयानन्दजी सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास में प्रश्नोत्तर-रूप में बताते हैं-
(प्रश्न) ईश्वर में इच्छा है वा नहीं।
(उत्तर) वैसी इच्छा नहीं। क्योंकि इच्छा भी अप्राप्त, उत्तम और जिस की प्राप्ति से सुख विशेष होवे तो ईश्वर में इच्छा हो सके। न उससे कोई अप्राप्त पदार्थ, न कोई उससे उत्तम और पूर्ण सुखयुक्त होने से सुख की अभिलाषा भी नहीं है। इसलिये ईश्वर में इच्छा का तो सम्भव नहीं, किन्तु ईक्षण अर्थात् सब प्रकार की विद्या का दर्शन और सब सृष्टि का करना कहाता है वह ईक्षण है।

ब्रह्म चेतन सत्ता है। क्रिया करना चेतन सत्ता का स्वाभाविक गुण है। यदि वह क्रिया न करे तो इससे उसकी चेतनता पर प्रश्नचिह्न लगता है। क्योंकि परमात्मा चेतन होने के कारण क्रिया करता है इसलिए उसने अपनी ईक्षण शक्ति से लोकों को उत्पन्न किया और वेदों की उत्पत्ति की। वेदज्ञान के माध्यम से लोकों के पदार्थों को लोगों ने जाना, इसी को कहा है कि मैं (ब्रह्म) प्रजा के द्वारा विस्तार को प्राप्त हो जाऊं। ईश्वर की यह अद्भुत ईक्षण शक्ति से ही सब सृष्टि की उत्पत्ति होती है और वह वेदज्ञान का प्रकाश करता है। इससे ब्रह्म की चेतनता सिद्ध है।

अतः ओंकार के अर्थ पर स्वामी दयानन्दजी का गूढ़ चिन्तन वैदिक विचारधारा एकेश्वरवाद का पोषण करता है। मनुष्य जाति में फैले ईश्वर विषयक भ्रांतिपूर्ण विचारों जैसे अनेकेश्वरवाद आदि पर महर्षि ने सप्रमाण प्रहार किया और लोगों को ईश्वर के सत्य स्वरूप से परिचित कराया। ईश्वर विषयक स्वामीजी की निर्भ्रान्त धारण थी। स्वामीजी ने वेदादि सत्य शास्त्रों के पढ़ने का अधिकार सबको दिया एवं अपने तप और पुरुषार्थ के बल पर वेद को स्वतःप्रमाण (ईश्वरीय ज्ञान) सिद्ध कर मनुष्य जाति में फैले अन्धविश्वास को खुली चुनौती दी। वेदों के उद्धार में स्वामी दयानन्दजी महाराज का योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा।

[Source- Navrang Times : Voice Of Arya Pratinidhi Sabha America, May-June 2020 issue & आर्ष क्रान्ति : आर्य लेखक परिषद् का मुख पत्र का जून २०२० का अंक]

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