Skip to main content

फूलों का चित्र और भौंरा


फूलों का चित्र और भौंरा

-महात्मा आनन्द स्वामी सरस्वती

एक भव्य महल के सजे हुए कमरे में एक सुन्दर युवक अकेला बैठा है। वह कमरे में लगे हुए चित्रों को ध्यानपूर्वक देख रहा है। दीवारों पर विभिन्न प्राकृतिक दृश्यों, उद्यानों, गुलदस्तों-फूलों के गुच्छों, युद्धों और नाना प्रकार के दृश्यों के चित्र हैं। देखते-देखते उसकी दृष्टि एक पुष्प के चित्र पर रुक गई। चित्रकार ने उस फूल का चित्र बनाने में कमाल किया था। पंखुड़ियों में वैसी ही सुर्खी थी। नीला और हरापन भी उसी मात्रा में दिखाई देते थे। दण्डी और उसके साथ लगे हुए कांटे तथा पत्ते भी वैसे ही दिखाई देते थे। लड़का चित्रकार की चित्रकला पर चकित हो रहा था और मन-ही-मन सोच रहा था कि सचमुच इस फूल के असली और नकली होने का विवेक करना तनिक कठिन है। इतने में उसने देखा कि एक भौंरा उड़ता हुआ कमरे में आया। उसने सारे कमरे में चक्कर लगाया और बड़ी व्याकुलता से फूल के चित्र पर बैठ गया, परन्तु वह शीघ्र ही फिर उड़ा और फूल के चित्र के इधर-उधर घूमने लगा।

भौंरा एक बार पुनः चित्र पर बैठा, परन्तु बैठते ही फिर उड़ा। उसकी उड़ान और उसकी चेष्टाएं स्पष्ट बताती हैं कि उसका मन बेचैन हो रहा है। वह बेचैनी और घबराहट का शिकार हुआ है। उसे किसी करवट चैन नहीं आता। भौंरा अब उड़कर कमरे से बाहर निकलना चाहता है, परन्तु फिर पलटा और आकर बड़ी बेचैनी से चित्र पर बैठ गया, परन्तु इस बार वह घबराकर उड़ा। उसके नन्हें-नन्हें पंखों से एक विचित्र-सी आवाज निकली, जिस आवाज ने हृदय में उतरते ही शब्दों का रूप धारण कर लिया और उन शब्दों का एक वाक्य बन गया। वही वाक्य युवक के मुख से एकदम फूट पड़ा- हे पुष्प के चित्र! तू सुन्दर है। तेरा रंग निःसन्देह धोखा देने वाला है, परन्तु तुझमें न असली फूल की-सी कोमलता है और न सुगन्ध है। मुझे शहद की आवश्यकता थी, जो तू मुझे नहीं दे सकता। तू किसी की आंखों को तनिक-सी प्रसन्नता देने के काम आ सकता है, परन्तु जो तुझसे धोखा खाकर तुझपर विश्वास करके तेरे सहारे आकर बैठते हैं, तू उन्हें न सुगन्ध देता है, न शहद।

संसार में वे लोग भी उस फूल के चित्र के समान हैं, जिनका शरीर सुन्दर है, जो धनी हैं, परन्तु संसारवालों के कुछ काम नहीं आते। आवश्यकता वाले उनके पास आते हैं, परन्तु निराश जाते हैं। अनाथ इनके डर सर कांपते और झिड़कियाँ खाते हुए निकलते हैं। ऐसे मनुष्य वास्तविक मनुष्य नहीं होते प्रत्युत नकली मनुष्य होते हैं।
वास्तविक मनुष्य वे हैं जो फूलों की भांति संसार को सुगन्धित कर देते हैं, शहद देते हैं, जिनकी पंखुड़ियां दूसरों को सुख-शान्ति पहुंचाने के काम आती हैं, जिनके जीवन का एक-एक क्षण दूसरों के लिए समर्पित होता है।

पाठक! बतलाओ आप संसार के भीतर रहकर धोखा देनेवाले नकली फूल बनना चाहते हो, या असली। इस प्रश्न को मन में विचारो और उत्तर दो।

[स्त्रोत- पवमान मासिक का अप्रैल २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

Comments

Popular posts from this blog

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो!

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो! वर्तमान समय में मनुष्यों ने भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय अपनी मूर्खता से बना लिए हैं एवं इसी आधार पर कल्पित धर्म-ग्रन्थ भी बन रहे हैं जो केवल इनके अपने-अपने धर्म-ग्रन्थ के अनुसार आचरण करने का आदेश दे रहा है। जैसे- ईसाई समाज का सदा से ही उद्देश्य रहा है कि सभी को "ईसाई बनाओ" क्योंकि ये इनका ग्रन्थ बाइबिल कहता है। कुरान के अनुसार केवल "मुस्लिम बनाओ"। कोई मिशनरियां चलाकर धर्म परिवर्तन कर रहा है तो कोई बलपूर्वक दबाव डालकर धर्म परिवर्तन हेतु विवश कर रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक सम्प्रदाय साधारण व्यक्तियों को अपने धर्म में मिला रहे हैं। सभी धर्म हमें स्वयं में शामिल तो कर ले रहे हैं और विभिन्न धर्मों का अनुयायी आदि तो बना दे रहे हैं लेकिन मनुष्य बनना इनमें से कोई नहीं सिखाता। एक उदाहरण लीजिए! एक भेड़िया एक भेड़ को उठाकर ले जा रहा था कि तभी एक व्यक्ति ने उसे देख लिया। भेड़ तेजी से चिल्ला रहा था कि उस व्यक्ति को उस भेड़ को देखकर दया आ गयी और दया करके उसको भेड़िये के चंगुल से छुड़ा लिया और अपने घर ले आया। रात के समय उस व्यक्ति ने छुरी तेज की और उस

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर प्रियांशु सेठ हमारे पौराणिक भाइयों का कहना है कि मूर्तिपूजा प्राचीन काल से चली आ रही है और तो और वेदों में भी मूर्ति पूजा का विधान है। ईश्वरीय ज्ञान वेद में मूर्तिपूजा को अमान्य कहा है। कारण ईश्वर निराकार और सर्वव्यापक है। इसलिए सृष्टि के कण-कण में व्याप्त ईश्वर को केवल एक मूर्ति में सीमित करना ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव के विपरीत है। वैदिक काल में केवल निराकार ईश्वर की उपासना का प्रावधान था। वेद तो घोषणापूर्वक कहते हैं- न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः। हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।। -यजु० ३२/३ शब्दार्थ:-(यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति (न अस्ति) नहीं है (एषः) वह (हिरण्यगर्भः इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से हिरण्यगर्भ है। (यस्मात् न जातः इति एषः) जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा जो प्रसिद्ध है। स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्य

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती प्रियांशु सेठ आजकल सदैव देखने में आता है कि संस्कृत-व्याकरण से अनभिज्ञ विधर्मी लोग संस्कृत के शब्दों का अनर्थ कर जन-सामान्य में उपद्रव मचा रहे हैं। ऐसा ही एक इस्लामी फक्कड़ सैयद अबुलत हसन अहमद है। जिसने जानबूझकर द्वेष और खुन्नस निकालने के लिए गायत्री मन्त्र पर अश्लील इफ्तिरा लगाया है। इन्होंने अपना मोबाइल नम्बर (09438618027 और 07780737831) लिखते हुए हमें इनके लेख के खण्डन करने की चुनौती दी है। मुल्ला जी का आक्षेप हम संक्षेप में लिख देते हैं [https://m.facebook.com/groups/1006433592713013?view=permalink&id=214352287567074]- 【गायत्री मंत्र की अश्लीलता- आप सभी 'गायत्री-मंत्र' के बारे में अवश्य ही परिचित हैं, लेकिन क्या आपने इस मंत्र के अर्थ पर गौर किया? शायद नहीं! जिस गायत्री मंत्र और उसके भावार्थ को हम बचपन से सुनते और पढ़ते आये हैं, वह भावार्थ इसके मूल शब्दों से बिल्कुल अलग है। वास्तव में यह मंत्र 'नव-योनि' तांत्रिक क्रियाओं में बोले जाने वाले मन्त्रों में से एक है। इस मंत्र के मूल शब्दों पर गौर किया जाये तो यह मंत्र अत्यंत ही अश्लील व