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Showing posts from 2020

दिव्य दीपावली

दिव्य दीपावली लेखक- आचार्य अभयदेव जी प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ ध्रुवं ज्योतिर्निहितं दृशये कं -ऋग्वेद ६/९/५ (एक नित्य ज्योति है जो कि देखने के लिये अन्दर रखी गयी है) दीपावली आयी। प्रतीक्षा करते हुए और उत्सुक बच्चे (दिन में ही तेल बत्ती से तैय्यार किये) अपने-अपने दीपक लाकर सांझ होते ही मां से कहने लगे 'मेरा भी दीपक जला दे, मां, मेरा भी दीपक जला दे'। मां अपने जलते दीपक से उनके भी दीपक जलाने लगी। खूब आनन्द से दीपावली मनाई गई। मेरे हृदय में रहने वाले 'बालक' ने भी प्रति ध्वनि की 'मां, मेरा दीपक भी जला दे'। हम और बड़े हुवे। प्रतिवर्ष ही कार्तिक अमावस पर दीपावली आने लगी और खूब मजे से मनाई जाने लगी। इतने में महात्मा गांधी की वाणी सुनायी दी 'दीवाली की खुशी कैसी? हम गुलाम क्या दीवाली मनायें? दीवाली तो तब मनायी जायगी जब भारत स्वाधीन हो जायगा'। मैंने कार्तिक अमावस को दीपक जलाने छोड़ दिये और भारतमाता से प्रतिवर्ष प्रार्थना करने लगा, 'मां, तू मेरा स्वाधीनता का दीपक जला दे'। "ओह, वह सच्ची दीपावली कब आवेगी जब कि हम स्वाधीन हुये तेरे पुत्र सचमुच आनन्द से दीपक ज...

पारिवारिक व्रत एवं आचरण

पारिवारिक व्रत एवं आचरण लेखक- पं० गंगाप्रसाद उपाध्याय ओ३म् अनुव्रत: पितु: पुत्रो माता भवतु संमना:। जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शान्तिवाम्।। -अथर्ववेद ३/३०/२ अन्वय- पुत्र: पितु: अनुव्रत: भवतु। पुत्रः माता सह संमना: भवतु। जाया पत्ये मधुमतीं शान्तिवां वाचं वदतु।। अर्थ- (पुत्र:) पुत्र (पितु:) पिता का (अनुव्रत:) अनुव्रत हो अर्थात् उसके व्रतों को पूर्ण करे। पुत्र (मात्रा) माता के साथ (संमना:) उत्तम मनवाला (भवतु) हो अर्थात् माता के मन को संतुष्ट करने वाला हो। (जाया) पत्नी को चाहिए कि वह (पत्ये) पति के साथ (माधुमतीम्) मीठी और (शान्तिवाम्) शान्तिप्रद (वाचम्) वाणी (वदतु) बोले। व्याख्या- इस वेदमंत्र में वे आरम्भिक साधन बताये हैं जिनसे गृहस्थ सुव्यवस्थित रह सकता है। ऊपरी दृष्टि से ऐसा लगता है कि जिन बातों का इस मन्त्र में प्रतिपादन है वे अतिसाधारण और चालू हैं। उनको असभ्य और अशिक्षित लोग भी समझते हैं। उनके लिए वेदमंत्र की आवश्यकता नहीं। परन्तु गम्भीर दृष्टि से पता चलेगा कि बहुत सी बातें विचारणीय और ज्ञातव्य हैं। उदाहरण के लिए दो शब्दों पर विचार कीजिए- एक 'पुत्र' और दूसरा 'अ...

शौर्य, पराक्रम और क्षात्रधर्म का पर्व : विजय दशमी

शौर्य, पराक्रम और क्षात्रधर्म का पर्व : विजय दशमी -डॉ० भवानीलाल भारतीय आर्यों के प्रमुख पर्वों में आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि विजयदशमी के नाम से जानी जाती है। यह एक वैदिक पर्व है जो आर्य जाति के शौर्य, तेज, बल तथा क्षात्रवृत्ति का परिचायक है। अज्ञानवश इसे राम द्वारा लंकाधिपति रावण को युद्ध में पराजित करने का दिवस मान लिया है। वस्तुतः इस पर्व का राम की लंका विजय से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तो भगवान् राम के आविर्भाव से पहले से चला आ रहा क्षात्रधर्म का प्रतीक पर्व है। वैदिक धर्म में ब्रह्म शक्ति और क्षत्र शक्ति के समन्वित विकास की बात कही गई है। यजुर्वेद में कहा गया है- यत्र ब्रह्मं च क्षत्रं च सम्यञ्चौ चरत: सह:। जहां ब्रह्म और क्षत्र विद्वता और पराक्रम का समुचित समन्वय रहता है वहां पुण्य, प्रज्ञा तथा अग्नि तुल्य तेज और ओज रहता है। वाल्मीकीय रामायण के अनुसार लंका पर राम की विजय चैत्र मास में हुई थी अतः आश्विन मास की दशमी का लंका विजय से कोई सम्बन्ध नहीं है। विजयदशमी तक वर्षा ऋतु समाप्त हो जाती है। प्राचीन काल में लगभग तीन चार मास तक निरन्तर वर्षा होती रहती थी। वीरों ...

स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य

स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य लेखक- पं० युद्धिष्ठिर मीमांसक जिस समय योरोपीय देशों में वेदार्थ जानने के लिए प्रत्यन हो रहा था, उसी समय भारत में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने एक सर्वथा नई दृष्टि से वेदार्थ करने का उपक्रम किया। स्वामी दयानन्द का वेदार्थ इन दोनों प्रकार के वेदार्थों से भिन्न था। स्वामी दयानन्द ने वेदार्थ की प्राचीन और अर्वाचीन सभी प्रक्रियाओं का भारतीय ऐतिहासिक दृष्टि से अनुशीलन किया और इस बात का निर्णय किया कि वेद और उसके अर्थ की वह स्थिति नहीं है, जो यज्ञों के प्रादुर्भाव के पीछे उत्तरोत्तर परिवर्तन होकर बन गई है। अपितु जिस समय यज्ञों का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था, उस समय वेदों की जो स्थिति थी और जिस आधार पर वेद का अर्थ किया जाता था, वही उसका वास्तविक अर्थ था। इसके लिए उन्होंने समस्त वैदिक और लौकिक, आर्ष और अनार्ष, सर्वविध संस्कृत वाङ्मय का आलोडन किया। मनुस्मृति, षड्दर्शन, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् और महाभारत आदि ग्रन्थों में जहां कहीं भी उन्हें प्रसङ्ग प्राप्त प्राचीन वेदार्थ सम्बन्धी संकेत उपलब्ध हुए उनके अनुसार प्राग्यज्ञकालीन वेदार्थ करने के जो नियम स्वामी ...

Jesus - The Biggest Lie

Jesus - The Biggest Lie (A Debate Between A Christian Pastor and Arya) Author- Priyanshu Seth Translated In English by- DS Balaji Arya Pastor - Jesus was an incarnation of God, who came between us to bless Humanity.  Arya - Tell me, Can Lord ever die? If no then how did Jesus die? If he wanted to help Humanity, then was it only then that Humans needed help? Humans have suffered even worse many times? Where was Jesus all those times? Pastor - Jesus did not die, he returned to life after three days Arya - Ok, let's assume for a moment that he did come back to life. Then tell me where is he now? Did he become disoriented? If yes then why? IS eh scared for getting crucified again? Pastor - No he is in all of our hearts. Arya - If he is in our hearts right now? Was he out of our hearts when he was crucified? Pastor - We are all incarnation of God, as said in Genesis - 1:23, I have created the Human as my Image, and fishes in the sea, birds in the sky, and domestic animals an...

उपनिषद् ज्ञान गङ्गा

उपनिषद् ज्ञान गङ्गा प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ • प्रजापति का उपदेश प्रजापति की तीन प्रकार की सन्तान- देवों, मनुष्यों और असुरों- ने अपने पिता प्रजापति के पास जा कर ब्रह्मचर्य्य का सेवन किया। जब वे ब्रह्मचर्य्य का सेवन कर चुके, तो देवों ने प्रजापति से कहा, "हमें उपदेश दीजिये"। प्रजापति ने कहा, "द", और पूछा, "तुमने समझा?" देवों ने कहा, "हां! समझ लिया है। आपने कहा है, अपने आप पर दमन करो।" प्रजापति ने कहा, "ठीक! तुमने समझ लिया है"। तब मनुष्यों ने उससे कहा, "महाराज! हमें उपदेश दीजिये"। प्रजापति ने कहा, "द", और पूछा, "तुमने समझा?" मनुष्यों ने उत्तर दिया, "हां! समझ लिया है। आपने कहा है, दान में कमाई व्यय करो।" प्रजापति ने कहा, "ठीक! तुमने समझ लिया है"। तब असुरों ने उससे विनय की, "महाराज हमें उपदेश दें"। प्रजापति ने कहा, "द", और पूछा, "तुमने समझा?" असुरों ने जवाब दिया, "हां! समझ लिया है। आपने कहा है, दयावान बनो।" प्रजापति ने कहा, "ठीक! तुमने समझ लिया है...

ठुकराया हुआ वीर : बून्दी का राजकुमार

ठुकराया हुआ वीर (हिन्दू जाति की ऐतिहासिक भूलों पर आंसू रुलाने वाली सच्ची घटना) लेखक- विजय राघव प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ कंटीले जंगलों और पथरीली पहाड़ियों के बीच अपनी सैकड़ों कोसों की यात्रा पैदल ही पूरी कर वह भागा हुआ कैदी अपनी जन्म भूमि बून्दी दुर्ग के निकट अन्त में पहुंच ही गया। इस संकटमयी यात्रा में कितनी ही रातें इसने पेड़ों पर सोते और जागते हुए बितायी थीं। कितने ही दिन भूखे प्यासे रहकर कंटीली झाड़ियों और नुकीली पथरीली पहाड़ियां, जंगली दरिन्दों की भयानक और डरावनी आवाजें सुनते हुए ही चलते-चलते गुजारे थे। शरीर के कपड़े झाड़ियों के कांटों में उलझ-उलझ कर तार-तार हो गये थे। नंगे पैर कांटों और नुकीले पत्थरों के चुभन से लहूलुहान हो रहे थे। इस भयानक यात्रा में जंगली कंदमूल खा-खाकर इस भागे हुए कैदी को अपने पेट की आग बुझानी पड़ती थी। मालवा प्रदेश की राजधानी मांडुगढ़ से बून्दी तक का यह जो भयानक जंगली मार्ग इस चौदह वर्षीय सुकुमार बालक ने पूरा किया था। इससे पहले आज तक किसी भी व्यकि ने इस मार्ग से इतनी लम्बी यात्रा न की थी क्योंकि उनके लिए तो आम रास्ते, शहरों और गांव के बीच होकर जाने वाली सुन...

दान दिये धन ना घटे

दान दिये धन ना घटे (दान प्रशंसा सूक्त) -प्रो० रामप्रसाद वेदालंकार ऋग्वेद : मण्डल-१०, सूक्त-११७, मन्त्र-१ ऋषि:- भिक्षु:। देवता- धनान्नदानप्रशंसा। दान देने से धन घटता नहीं। न वा उ देवा: क्षुधमिद् वधं ददुरुताशितमुपगच्छन्ति मृत्यव। उतो रयि: पृणतो नोपदस्यत्युतापृणन्मर्डितारं न विन्दते।।१।। अन्वय:- क्षुदम् इत् वधं, देवा: वै न उ ददु:, उत आशितं मृतय+उपगच्छन्ति। उत उ पृणतः रयि: न उनदस्यति। उत अपृणन् मर्डितारं न विन्दते। १ केवलाघो भवति केवलादी।। ऋ० १०/११७/६ सं० अन्वयार्थ- केवल भूखों को ही मौत नहीं मारती। भूखे ही मरते हैं देवों ने कभी ऐसा नहीं कहा। वे तो कहते हैं कि मरते वे भी हैं जिनके पेट भरे रहते हैं और दाता का ऐश्वर्य क्षीण नहीं होता तथा जो अदाता-कृपण-कंजूस है, उसको कभी समय आने पर सुख देने वाला नहीं मिलता। अन्वयार्थ- (क्षुधम् इत् वधं, देवा: वै न ददु:) भूखों को ही मृत्यु प्राप्त होती है, देवों-विद्वानों ने निश्चय ही यह विचार नहीं दिया, अर्थात् केवल भूखे व्यक्ति ही मरते हैं, देवों ने यह ही नहीं माना (उत् आशितं मृत्यव: उपगच्छन्ति) मृत्युएं भर पेट खाए पिये मनुष्यों को भी प्राप्त होती ...

स्वामी मुनीश्वरानन्दजी : एक परिचय

स्वामी मुनीश्वरानन्दजी : एक परिचय प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ स्वामी मुनीश्वरानन्दजी का कार्यकाल पं० अयोध्या प्रसादजी से भी पूर्ववर्ती है। यों तो उनका कार्यक्षेत्र बिहार रहा है फिर भी कलकत्ता और आर्यसमाज कलकत्ता में यहां के अंचलों में वेदधर्म के प्रचारार्थ उनका आगमन होता ही रहता था और पर्याप्त समय तक वे यहां निवास करते हुए आर्यसमाज का प्रचार करते रहते थे। स्वामी मुनीश्वरानन्दजी दानापुर (पटना) के दियारा, उत्तरी भाग के रहने वाले थे। ये बालब्रह्मचारी पुरुष थे। आरम्भिक दिनों में स्वामी मुनीश्वरानन्दजी कबीरपंथी थे। इनका सम्बन्ध मास्टर जनकधारी सिंह से हुआ। मास्टरजी स्वामी दयानन्द के भक्त, शिष्य और आर्यसमाजी विचारों के थे। इन्हीं के सम्पर्क में आकर स्वामी मुनीश्वरानन्दजी न केवल स्वामी दयानन्द के भक्त ही बने बल्कि संन्यासी बनकर उन्होंने आर्यसमाज का यावज्जीवन प्रचार किया। वे प्रायः आर्यसमाज दानापुर में रहा करते थे। स्वामीजी कठोर खण्डन को भी मृदु एवं हृदयग्राही बना देते थे। उनके सम्बन्ध में कलकत्ता में हमने शास्त्रार्थ की चर्चा सुनी थी। हम सन् १९४४-४५ ई० में कलकत्ता आये थे। उस समय के कु...

श्राद्ध

श्राद्ध लेखक- स्वर्गीय श्री वे०शा० स्वा० वेदानन्द जी तीर्थ अनुवादिता- श्री स्वामी वेदानन्द जी वेदवागीश प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ, डॉ विवेक आर्य [प्रायः देखने में आता है कि एक सामान्य व्यक्ति श्राद्ध-कृत्य से मृतक जीवों के भोजनादि द्वारा तृप्ति करना मानता है अथवा कुछ लोग पितृयज्ञ को ही मृतक-श्राद्ध बतलाते हैं। उनके अनुसार ब्राह्मणों को तिथि विशेष पर भोजन कराने से उनके पितरों को सन्तुष्टि मिलती है। वेद के विचार इसमें अपनी सम्मति प्रदान नहीं करते हैं। वेदों के अनुसार शरीर नष्ट हो जाने के बाद वह कोई भी पदार्थ ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता है तथा मनुष्य के दाहोपरान्त शरीर में उपस्थित आत्मा अपने कर्मानुसार ईश्वर के कर्मफल नियम के अधीन होकर उचित गति को प्राप्त होती है। इससे सिद्ध होता है कि मृतक जीवों को भोजनादि द्वारा तृप्त करना अवैदिक कृत्य है। पितृयज्ञ पञ्चमहायज्ञ के अनुष्ठान का एक अङ्ग है। जो यज्ञ माता-पिता तथा इनके पूर्वजों के सम्बन्ध में किये जायें, वह पितृयज्ञ कहलाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा एवं जीवित पितरों की श्रद्धा से सेवा और शुश्रुषा करना पितृयज्ञ का वैदिक स्वरूप...