दिव्य दीपावली
लेखक- आचार्य अभयदेव जी
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ
ध्रुवं ज्योतिर्निहितं दृशये कं -ऋग्वेद ६/९/५
(एक नित्य ज्योति है जो कि देखने के लिये अन्दर रखी गयी है)
दीपावली आयी। प्रतीक्षा करते हुए और उत्सुक बच्चे (दिन में ही तेल बत्ती से तैय्यार किये) अपने-अपने दीपक लाकर सांझ होते ही मां से कहने लगे 'मेरा भी दीपक जला दे, मां, मेरा भी दीपक जला दे'। मां अपने जलते दीपक से उनके भी दीपक जलाने लगी। खूब आनन्द से दीपावली मनाई गई।
मेरे हृदय में रहने वाले 'बालक' ने भी प्रति ध्वनि की 'मां, मेरा दीपक भी जला दे'।
हम और बड़े हुवे। प्रतिवर्ष ही कार्तिक अमावस पर दीपावली आने लगी और खूब मजे से मनाई जाने लगी। इतने में महात्मा गांधी की वाणी सुनायी दी 'दीवाली की खुशी कैसी? हम गुलाम क्या दीवाली मनायें? दीवाली तो तब मनायी जायगी जब भारत स्वाधीन हो जायगा'। मैंने कार्तिक अमावस को दीपक जलाने छोड़ दिये और भारतमाता से प्रतिवर्ष प्रार्थना करने लगा, 'मां, तू मेरा स्वाधीनता का दीपक जला दे'। "ओह, वह सच्ची दीपावली कब आवेगी जब कि हम स्वाधीन हुये तेरे पुत्र सचमुच आनन्द से दीपक जलाकर तेरी पूजा कर सकेंगे"। तब से रूढ़ि की दीवाली फीकी हो गयी, उस दिन दिये जलाना बुरा लगने लगा।
और वर्ष बीते। अभी तक १९४७ की दीपावली का दिन नहीं आया था। उसके आने से १०, १२ वर्ष पहले ही एकान्त में एक पवित्र वाणी सुनाई दी 'अरे, बाहर के दीपक में क्या रक्खा है, अन्दर का दीपक जला'। "ये बाहर के दीपक तो सिनेमा घरों में रोज-रोज जलते हैं, वहां हर रोज ही दीवाली रहती है। बाहर के दिये तो जिस दिन चाहो, चाहे जितने, जला लो"। मैं अन्दर की तरफ मुड़ा, मैंने जगन्माता से प्रार्थना की 'मेरा अन्दर का दिया जला दे, मां, मेरा अन्दर का दिया जला दे'। तब से ये बाहर के सब दिये फीके हो गये। स्वाधीन हो जाने पर मनायी जाने वाली दीपावली भी फीकी हो गयी और मैं प्रतीक्षा करने, प्रतिवर्ष प्रतीक्षा करने लगा कि यह सच्ची दीवाली कब आवेगी, जब मेरा अन्तर का दिया जल उठेगा।
और समय बीता। श्री अरविन्द के हृदय को प्यारी लगने वाली वाणी ने मेरा ध्यान खींचा। 'अन्दर के 'टार्च' जैसे प्रकाश भी किस काम के, कभी-कभी चमकने वाली विद्युत् के प्रकाश भी तेरे मार्ग को आलोकित नहीं कर सकेंगे'। वेद में कहे "ध्रुवं ज्योतिनिर्हितं दृशये कं" वचन का नया अर्थ समझ में आया। अन्दर स्थिर ज्योति पा लेने की अभीप्सा तीव्र हो उठी। उस ज्योति की जिसके विषय में उपनिषद् के ऋषि ने 'आत्मज्योतिरयं पुरुष:' की व्याख्या में कहा है कि जब सूर्य अस्त हो जाता है, जब चन्द्र की एक भी कला नहीं रहती, जब अग्नि भी नहीं जलती, जब वाणी भी कुछ प्रकाशित नहीं कर सकती, तब भी जो नित्य ध्रुव ज्योति सब कुछ दिखाती है, उस ज्योति को जिसके विषय में सन्तों ने कहा है-
आप ही जोया, आप ही बाती।
अखण्ड जरे दिन राती।।
मैंने दिव्या, भगवती से प्रार्थना की 'मां, मेरे अन्दर स्थिर ध्रुव ज्योति जगा दे'। "मेरे हृदय गुहा में वह दीपक जला दे, जो दिन रात अखण्ड जलता है, जो कभी बुझ नहीं सकता"। असल में मेरी दीवाली तो तभी मनाई जा सकेगी। अन्दर से आने वाली अस्थायी ज्योतियां भी फीकी लगने लगीं और मैं इस दिव्य दीवाली की बाट जोहने लगा, जब कि मेरा हृदय एक नित्य, स्थिर ज्योति से आलोकित रहने लगेगा।
और वह क्या ही दिव्य दीवाली होगी जब कि हृदय-हृदय में उस ध्रुव ज्योति का दिव्य दीपक जग उठेगा और ऐसे सैकड़ों हजारों दीपकभूत पुरुष स्त्रियों का समाज मिलकर पूर्ण सामंजस्य के साथ, इस पृथ्वी पर कार्य कर रहा होगा। ओह, वह देवों के भी देखने योग्य दीवाली होगी।
तब ये सब मनायी गयी अनन्त दिवालियां सार्थक हो जायेंगी। ओह, हम न जाने कब से दीपावली मना रहे हैं। लोग कहते हैं, जब से देवी ने नरकासुर का वध किया था तब से दीवाली मनायी जा रही है। कई कहते हैं, श्री रामचन्द्र जी के युग से दीवाली चली आ रही है। कम से कम, हम तो कई बार जन्म ले चुके हैं, कई बार बच्चे, जवान और बुढ्ढे हो चुके हैं, तब से दीवाली मनायी जाती रही है। वे सबकी सब मनायी गयी दिवालियां उस दिन सार्थक हो जायेंगी- अपने मनाये जाने के उद्देश्य को प्राप्त कर लेंगी। असल में उसी भविष्य में आने वाली दिव्य दीपावली तक पहुंचने के लिये ही जाने अनजाने हम बच्चे मां से, हम भारतवासी उस भारत माता से, हम जगत्पुत्र उस जगज्जननी से, हम दिव्य अमृतपुत्र उस दिव्या भगवती से प्रार्थना करते आ रहे हैं 'मां, मेरा भी दीपक जला दे', अपनी नित्य, ध्रुव, सत्य ज्योति से मेरा भी दीपक जग मगा दे!!!
-'वेदवाणी' १९५४ के वेदांक से साभार
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