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क्या वास्तव में वेदों में मूर्तिपूजा है?



क्या वास्तव में वेदों में मूर्तिपूजा है?

कीथ आदि पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार निम्न मन्त्र में पत्थर की मूर्ति बैठे हुए देवता का वर्णन है-

ऋषीणां प्रस्तरोअसि नमोअस्तु दैवाय प्रस्तराय। -अथर्व० १६-२-६

ऋग्वेदीय निम्नलिखित मन्त्र में भी मूर्तिपूजा का स्पष्ट वर्णन है-

क इमं दशभिर्ममेन्द्रं क्रीणाति धेनुभि:। -ऋ० ४-२४-१०

अर्थात् मेरे इन्द्र को दश गौओं के बदले कौन खरीदेगा? इस प्रकार का इन्द्र पत्थर मूर्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हो सकता।

आइए, हम इन मन्त्रों के वास्तविक अर्थों को देखें।

अथर्ववेदीय मन्त्र में 'प्रस्तर' का अर्थ है आसन। ग्रिफिथ महोदय ने भी इसका अर्थ Couch आसन ही किया है। यहां आसन से तात्पर्य शरण और आश्रय से है। इस प्रकार मन्त्र का भाव होगा- हे परमात्मन्! आप मन्त्रद्रष्टा ऋषियों के आश्रय हैं, समस्त संसार के आश्रय दिव्यस्वरूप आपको नमस्कार हो। इस प्रकार मन्त्र में मूर्तिपूजा की गन्ध भी नहीं है।

प्रस्तर का अर्थ पत्थर की मूर्ति वेद की किसी भी अन्तः साक्षी से सिद्ध नहीं होता।

अब ऋग्वेदीय मन्त्र को लीजिए। वैदिक साहित्य में इन्द्र का अर्थ है परमात्मा, आत्मा, राजा तथा ऐश्वर्य आदि। 'दशभि: धेनुभि:' का अर्थ यहां दस गायें न होकर दस इन्द्रियाँ होगा। धेनु शब्द गौ का पर्यायवाची है। धेनु के साथ दस का विशेषण भी दस इन्द्रियों की ओर ही संकेत कर रहा है। इस प्रकार अब मन्त्र का अर्थ होगा-

(क:) ऐसा कौन है जो (मम इन्द्रम्) मेरे आत्मा को (दशभि: धेनुभि: क्रीणाति) दश इन्द्रियों के द्वारा, इन्द्रियों के भोगों द्वारा खरीद ले। इस मन्त्र में जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर अपने आत्मा को उन्नत कर लिया है, ऐसे व्यक्ति की घोषणा है कि संसार में ऐसा कौन व्यक्ति है जो मुझे इन्द्रिय के विषय-भोगों का लालच देकर अपने आदर्श से गिरा दे। इस प्रकार इस मन्त्र में गायों के बदले में मूर्ति-क्रय करने का लेश भी नहीं है।

प्रश्न- षड्विंश ब्राह्मण ५-१० में लिखा है-

यदास्यायुक्तानि यानानि प्रवर्त्तन्ते देवायतनानि कम्पन्ते दैवत प्रतिमा हसन्ति रुदन्ति नृत्यन्ति स्फुटन्ति खिद्यन्त्युन्मीलन्ति निमीलन्ति प्रतिभान्ति नद्य: कबन्धमादित्ये दृश्यते विजले च परिविष्यते केतुपता० इत्यादि।

अर्थात् जब देवताओं के स्थान काँपते हैं तो देवताओं की प्रतिमाएँ हँसती हैं, रोती हैं, नाचती हैं, टूटती हैं और आँखें झपकती हैं। इस ब्राह्मण वचन से मूर्ति-पूजा सिद्ध होती है, फिर आप खण्डन क्यों करते हो?

उत्तर- मूर्तिपूजक इस प्रमाण को अकाट्य समझते हैं परन्तु तर्क-तुला पर यह धराशायी हो जाता है। उपर्युक्त प्रमाण के अनुसार मूर्तियाँ नाचती हैं, गाती हैं, हंसती हैं। जिस दिन पौराणिक मन्दिरों में रखी हुई मिट्टी-पीतल की मूर्तियों को हंसते, रोते और आंख झपकते दिखा देंगे हम उस दिन मूर्तिपूजा को मान लेंगे। मन्दिरों में रखी मूर्तियां न रोती हैं, न हंसती हैं, न नाचती और गाती हैं; अतः ये हंसने और रोने वाले देवता कोई और ही हैं।

मूल पाठ में 'दिवम्' पद पड़ा हुआ है। प्रतीत ऐसा होता है कि ये द्युलोक में दिखाई देने वाले उत्पातों का वर्णन है। सायणाचार्य के अनुसार, यह स्वप्नावस्था का दृश्य है। सायण के अनुसार खर, महिष आदि यान जो अयोग्य हो जाते हैं वे ही देवता कहे जाते हैं। इस प्रकार सायणाचार्य के अनुसार, दैवत प्रतिमा का अर्थ गधा और भैंसा आदि होंगे। सनातनियों को इन्हीं का पूजन करना चाहिए।

निष्कर्ष- उपरोक्त प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि वेदों में मूर्तिपूजा का वर्णन कहीं नहीं है। वेद तो घोषणापूर्वक कहते हैं-

न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः। हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।। -यजु० ३२/३

शब्दार्थ:- (यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति (न अस्ति) नहीं है (एषः) वह (हिरण्यगर्भः इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से हिरण्यगर्भ है। (यस्मात् न जातः इति एषः) जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा जो प्रसिद्ध है।

नोट- श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी की कुछ पंक्तियां स्मरण आ रही हैं--

"मूर्तिपूजा ने भारत के अकल्याण की जो सामग्री एकत्रित की है उसे लेखनी लिखने में असमर्थ है। मूर्तिपूजा ने भारतवासियों का जो अनिष्ट किया है उसे प्रकट करने में हमारी अपूर्ण-विकसित भाव-प्रकाशक-शक्ति अशक्त है। जो धर्म सम्पूर्ण भाव से आन्तरिक एवं आध्यात्मिक था उसे सम्पूर्ण रूप से बाह्य किसने बनाया? -मूर्तिपूजा ने। काम आदि शत्रुओं के दमन और वैराग्य के साधन के बदले तिलक और त्रिपुण्ड किसने धारण कराया? -मूर्तिपूजा ने। ईश्वरभक्ति, ईश्वरप्राप्ति, परोपकार और स्वार्थत्याग के बदले अङ्गों में गोपीचन्दन का लेपन, मुख से गंगालहरी का उच्चारण, कण्ठ में अनेक प्रकार की मालाओं का धारण किसने कराया? -मूर्तिपूजा ने। हिन्दुओं के चित्त से स्वाधीन चिन्तन की शक्ति किसने हरण की? -मूर्तिपूजा ने। हिन्दुओं के मनोबल, वीर्य, उदारता और उत्साह को किसने दूर किया? -मूर्तिपूजा ने।...आर्य जाति को सैकड़ों समुदायों में किसने बाँटा? -मूर्तिपूजा ने।...ऐसा कौन-सा अनर्थ है, जो मूर्तिपूजा द्वारा सम्पादित नहीं हुआ? सच्ची बात तो यह है कि आप चाहे हाईकोर्ट के न्यायाधीश हों चाहे गवर्नर (लाट) साहब के प्रधान सचिव, आप बुद्धि में बृहस्पति के तुल्य हों चाहे वाग्मिता में सिसरो (Cicero) गोटे (Goethe) से भी बढ़कर, आप अपने देश में पूजित हों अथवा विदेश में आपकी ख्याति का डंका बजा हो, आप सरकारी कानून को पढ़कर सब प्रकार से अकार्य-कुकार्य को आश्रय देनेवाले अटर्नी (Attorney) कुल के उज्ज्वलतम रत्न हों, चाहे मिष्टभाषी, मिथ्योपजीवी सर्वप्रधान स्मार्त (वकील) हों, परन्तु यदि किसी अंश में भी आप मूर्तिपूजा का समर्थन करेंगे तो हमें यह कहने में अणुमात्र भी संकोच नहीं होगा कि आप किसी अंश में भी भारतवर्ष के मित्र नहीं हो सकते, क्योंकि मूर्तिपूजा भारतवर्ष के सारे अनिष्टों का मूल है। -महर्षि दयानन्द का जीवन-चरित्र, प्रथम भाग, पृष्ठ ९

।।आओ लौटें वेदों की ओर।।

Comments

  1. कौन से वेद का अध्ययन किया है महोदय आपने?

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