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ईश्वर सर्वज्ञ है!



ईश्वर सर्वज्ञ है!

प्रश्न- क्या ईश्वर भविष्य जानता है या नहीं? अगर जानता है तो फिर हमारा भविष्य निश्चित् है अर्थात् हमारे अच्छे और बुरे कर्म ईश्वर ने ही निर्धारित किये हैं। अगर नहीं जानता है तो फिर ईश्वर सर्वज्ञ नहीं रह जाता है। ईश्वर सर्वशक्तिमान् है वा नहीं?

उत्तर- ईश्वर भविष्य जानता है लेकिन सनातन भविष्य ही जानता है अनित्य भविष्य नहीं। ईश्वर जानता है कि किस कर्म का क्या दण्ड देना है या ईश्वर को पता है गर्मी के बाद वर्षा है या प्रलय कब करना है आदि-आदि लेकिन मैं कब क्या करूँगा यह नहीं जनता। जैसे मैं दिल्ली जाने के लिए कल का रिजर्वेशन करवाता हूँ तो ईश्वर को पता चलता है कि मैं दिल्ली जाने वाला हूँ लेकिन जाऊँगा या नहीं यह अनिश्चय है। हो सकता है मैं कैंसल करवा दूँ या दिल्ली न जाकर आगरा ही उतर जाऊं। जीव कर्त्तव्य कर्मों में स्वतन्त्र तथा ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। 'स्वतन्त्र: कर्त्ता' यह पाणिनि व्याकरण का सूत्र है। जो स्वतन्त्र अर्थात् स्वाधीन है वही कर्त्ता है। यदि ईश्वर हमारे सारे भविष्य को जानता तो इसका मतलब हुआ कि हमारे सारे कर्मों का निर्धारण पहले से ही हो चुका है। जब पहले से हो चुका है तो मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र न रहा। मैं शराब पियूँगा या नहीं यह ईश्वर ने पहले से जाना या निर्धारित कर दिया तो उसका दण्ड मुझे क्यों मिलेगा? उस पाप का निश्चय तो ईश्वर ने ही कर रखा था तो मैं दोषी कैसे? ऐसे में ईश्वर भविष्य को एक निश्चित सीमा तक ही जानता है अधिक नहीं। परमेश्वर का ज्ञान सदा एकरस, अखण्डित वर्तमान रहता है। ईश्वर सर्वज्ञ है अर्थात् सम्पूर्ण संसार में विद्यमान सब प्रकार की विद्याओं को जानने वाला है, संसार का कोई भी ज्ञान-विज्ञान ऐसा नहीं है जिसे परमात्मा न जानता हो, अतः वह समस्त ज्ञानों का ज्ञाता है। इसलिए वेद में सर्वज्ञ ईश्वर को ("यः कौति शब्दयति सर्वा विद्या: स कविरीश्वर:" जो वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेष्टा और वेत्ता है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम 'कवि' है) 'कवि' नाम से कहा गया है। ईश्वर सर्वशक्तिमान् है परन्तु जैसा तुम सर्वशक्तिमान् का अर्थ जानते हो वैसा नहीं। क्या ईश्वर स्वयं के जैसा दूसरा ईश्वर बना सकता है? नहीं, क्योंकि यह उसके गुण, कर्म, नियम, स्वभाव के विपरीत है। सर्वशक्तिमान् शब्द का यही अर्थ है कि ईश्वर अपने काम अर्थात् उत्पत्ति, पालन, प्रलयादि और सब जीवों के पुण्य पाप की यथायोग्य व्यवस्था करने में किञ्चित् भी किसी की सहायता नहीं लेता अर्थात् अपने अनन्त सामर्थ्य से ही सब अपना काम पूर्ण कर लेता है।

इस सम्बन्ध में वेद भगवान् हमें बड़े ही सरल एवं मार्मिक शब्दों में उपदेश देते हैं-

यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।। - अथर्व० १०/८/१

यः भूतं च भव्यं च अधितिष्ठति'- जो भूत, भविष्यत् के सभी कालो का अधिस्वामी है, त्रिकालातीत है; 'यश्च सर्वं अधितिष्ठति'- जो त्रिभुवन से भी महान् है और नित्य तथा सर्वव्यापक है; यस्य च स्व: केवलं- जो विशुद्ध द्वन्द्वातीत आ आनन्द का स्वामी है।

भावार्थः- प्रभु कालत्रयी में होनेवाले सब लोक-लोकान्तरों के अधिष्ठाता हैं। प्रभु का प्रकाश हमें आनन्द में विचरण कराता है। हम उस ज्येष्ठ ब्रह्म के लिए नमस्कार करते हैं।

यस्य भूमि: प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्।
दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।। - अथर्व० १०/७/३२

'यस्य भूमि: प्रमा'- यह विशाल भूमि जिसके चरण हैं; 'उत अन्तरिक्षं उदरम्'- यह आकाश जिसके मध्य भाग में है; 'य: दिवं मूर्धानं चक्रे'- अन्तरिक्ष लोक के ज्योर्तिमय ग्रह-उपग्रह जिसके मस्तक की शोभा है; 'तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:'- उस विराट पुरुष ब्रह्म को हम नम्र प्रणाम करते हैं।

भावार्थः- यह ब्रह्माण्ड उस सर्वाधार प्रभु का देह है। इस ब्रह्माण्ड को वे ही धारण कर रहे हैं। इसके अंगों में उस प्रभु की महिमा को देखने का प्रयत्न करना चाहिए। इस महिमा को देखता हुआ साधक उस प्रभु की प्रति नतमस्तक होता है।

भूत भविष्यत् वर्तमान का, जो प्रभु है अन्तर्यामी।
विश्व व्योम में व्याप्त हो रहा, जो त्रिकाल का है स्वामी।।

निर्विकार आनन्द कन्द है, जो कैवल्य रूप सुखधाम।
उस महान् जगदीश्वर को है, अर्पित मेरा नम्र प्रणाम्।।

कोटि-कोटि योजन युग फैली, पृथिवी जिसके चरण समान।
मध्य भाग में अन्तरिक्ष को, रखता है जो उदर समान।।

शीर्ष तुल्य जिसके हैं शोभित, ये नक्षत्र लोक अभिराम।
उस महान् जगदीश्वर को है, अर्पित मेरा नम्र प्रणाम्।।

।।ओ३म्।।

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