क्या बीमारी भी भगवान का रूप है?
आजकल बीमारी को भी लोग भगवान का नाम देने लगे हैं। इसमें मुख्य नाम है चेचक। छूत के कारण समाज में तेजी से फैलने वाली यह बीमारी माताजी के नाम से प्रचलित है। बड़े-बड़े एवं पढ़े-लिखे लोग तक इस भ्रम में जीते हैं कि यह कोई बीमारी नहीं अपितु साक्षात माताजी (चेचक) आयी हैं तो अनपढ़ से क्या उम्मीद रखें? इसका सबसे बड़ा कारण है अज्ञानता व अन्धविश्वास। आइए एक वृत्तान्त द्वारा समझते हैं कि जब एक पौराणिक व्यक्ति के घर किसी को चेचक रोग होता है तो वहां की स्थिति कैसी होती है एवं यह अन्धविश्वास दूर कैसे होता है?
पिताजी- डॉ साहब, देखिए मेरी 3 वर्ष की बिटिया को क्या हो गया है? न ठीक से खा रही है न ठीक से सो रही है और न ही खेल रही है, केवल रोती रहती है। कोई ऐसी दवाई दीजिए जिससे यह सब ठीक हो जाये और वो पहले की तरह खेलने लगे।
डॉ साहब- कितने दिनों से ऐसी है?
पिताजी- लगभग चार-पांच दिनों से।
डॉ साहब ने कुछ दवाइयां लिख दीं और कैसे खिलाना है, सब पर्चे पर लिख दिया।
पिताजी- कब तक ठीक हो जाएगी?
डॉ साहब- पहले दवाइयां तो खिलाइए! जल्द ही आराम हो जाएगा।
पिताजी घर पहुंचने के बाद परिवार में कहते हैं, "डॉ साहब ने दवा दिया है और कहा है कि जल्द ही ठीक हो जाएगी।"
दो दिन और बीत गए लेकिन बिटिया को तबियत में आराम नहीं होता है और अगले दिन उसके शरीर पर छोटे-छोटे लाल दाने निकलने लगते हैं तथा त्वचा पर भी लाल होने लगते हैं। इतने में अगले दिन-
दादीजी- अरे देखो भई! खुशी की बात है। हमारे घर में माताजी ने साक्षात दर्शन दिए हैं।
पिताजी- अजी सुनती हो! अब से प्रतिदिन लगभग एक हफ्ते तक घर में सादा खाना ही बनेगा; खाने में लहसुन, प्याज और हल्दी आदि नहीं पड़ेंगे तथा सुबह-शाम माताजी अर्थात् बिटिया की आरती एवं पूजा होगी तथा प्रसाद चढ़ेगा क्योंकि हमारे घर में साक्षात माताजी ने अपने दर्शन दिए हैं।
पत्नी- ठीक है जी!
पिताजी- हम अभी पूजा की सामग्री एकत्रित करते हैं एवं इस पूजा में घर के सभी सदस्य सम्मिलित होंगे।
इतने में पिताजी घर के सभी सदस्यों को बुलाते हैं तथा उनका सबसे बड़ा बेटा भी गुरुकुल से कुछ दिनों के लिए घर पर रहने आ जाता है। वह अपने परिवार में सबसे भिन्न वैदिक सिद्धान्तों का अनुसरण करने वाला बालक रहता है। बालक घर पहुंचता है एवं अपनी बहन की पूजा का दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो जाता है और जिज्ञासा के कारण पूछ लेता है-
पिताजी, ये सब क्या हो रहा है? और यह पूजा?
पिताजी- बेटा! तुम्हारी छोटी बहन के ऊपर माताजी आयी हैं और उन्होंने साक्षात दर्शन दिए हैं।
बेटा- कौन माताजी?
पिताजी- दुलारो माता!
बेटा- ये कौन माताजी हैं?
पिताजी- ये शीतला माता के अनेक रूपों में से एक हैं।
बेटा- किन्तु पिताजी ये तो छुआछूत से फैलने वाली बीमारी चेचक है।
पिताजी- नहीं! यह माता का रूप है।
बेटा- पिताजी मेरे मन में एक प्रश्न है, आपकी अनुमति हो तो पूछ सकता हूँ?
पिताजी- अवश्य पूछो!
बेटा- क्या ईश्वर हमें रोगग्रस्त देखना चाहते है?
पिताजी- ये कैसा प्रश्न है! ईश्वर हमें रोगग्रस्त क्यों देखना चाहेंगे? ये पूजा तो उसी रोग को ठीक करने के लिए की जाती है। यह हमारी परम्परा है जो परिवार में शुरु से चली आ रही है।
बेटा- पिताजी! अगर किसी परिवार में हर बीमारी अथवा रोग को किसी ईश्वर का नाम दे दिया जाए तो क्या यह सही है? क्या आप इसका समर्थन करेंगे?
पिताजी- नहीं! यह तो अज्ञानता, मूर्खता व पाप होगा।
बेटा- यही तो मैं कह रहा हूं, आप जो कर रहे क्या वह अज्ञानता नहीं? "ईश्वर हमें रोगी क्यों देखना चाहेगा?" हम तो अपने लापरवाही से बीमार पड़ते हैं। ईश्वर तो केवल हमें कर्मानुसार फल देता है।
जो सत्य न्याय के करनेहारे मनुष्यों का मान्य और पाप तथा पुण्य करने वालों को पाप और पुण्य के फलों का यथावत् सत्य-सत्य नियमकर्ता है, इसी से उस परमेश्वर का नाम 'अर्य्यमा' है।
रोग तो हम स्वयं से पालते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है; स्वच्छता से न रहना, प्रतिदिन योगाभ्यास/व्यायाम न करना इत्यादि।
इसमें ईश्वर का क्या दोष है? वह तो हमें रोगमुक्त करता है। देखिए-
(कित निवासे रोगापनयने च) इस धातु से 'केतु' शब्द सिद्ध होता है। 'यः केतयति चिकित्सति वा स केतुरीश्वर:' जो सब जगत् का निवासस्थान, सब रोगों से रहित और मुमुक्षुओं को मुक्ति समय में सब रोगों से छुड़ाता है, इसलिए उस परमात्मा का नाम 'केतु' है।
रोगग्रस्त करना ईश्वर के स्वभाव के विपरीत है और ये दुलारो माता वास्तव में कोई है ही नहीं।
(ओमित्येत०) सब वेदादि शास्त्रों में परमेश्वर का प्रधान और निज नाम 'ओ३म्' को कहा है, अन्य सब गौणिक नाम हैं। ये तो हमारे पोपजन पण्डों ने ईश्वर के ऐसे-ऐसे नामकरण कर दिए हैं जिनका वास्तविकता में कोई अस्तित्व ही नहीं है।
अब पिताजी को समझ आ गया कि वास्तव में यह मूर्खता ही है; पिताजी निरुत्तर तो हो गए एवं तब से इस अंधविश्वास के विरुद्ध हो गए।
जब व्यक्ति अज्ञानी हो और उसे अच्छे और विद्वान् जन की सङ्गति मिल जाए, तो उनके व्यवहार में परिवर्तन आना निश्चित है।
-प्रियांशु सेठ
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