दान दिये धन ना घटे (दान प्रशंसा सूक्त) -प्रो० रामप्रसाद वेदालंकार ऋग्वेद : मण्डल-१०, सूक्त-११७, मन्त्र-१ ऋषि:- भिक्षु:। देवता- धनान्नदानप्रशंसा। दान देने से धन घटता नहीं। न वा उ देवा: क्षुधमिद् वधं ददुरुताशितमुपगच्छन्ति मृत्यव। उतो रयि: पृणतो नोपदस्यत्युतापृणन्मर्डितारं न विन्दते।।१।। अन्वय:- क्षुदम् इत् वधं, देवा: वै न उ ददु:, उत आशितं मृतय+उपगच्छन्ति। उत उ पृणतः रयि: न उनदस्यति। उत अपृणन् मर्डितारं न विन्दते। १ केवलाघो भवति केवलादी।। ऋ० १०/११७/६ सं० अन्वयार्थ- केवल भूखों को ही मौत नहीं मारती। भूखे ही मरते हैं देवों ने कभी ऐसा नहीं कहा। वे तो कहते हैं कि मरते वे भी हैं जिनके पेट भरे रहते हैं और दाता का ऐश्वर्य क्षीण नहीं होता तथा जो अदाता-कृपण-कंजूस है, उसको कभी समय आने पर सुख देने वाला नहीं मिलता। अन्वयार्थ- (क्षुधम् इत् वधं, देवा: वै न ददु:) भूखों को ही मृत्यु प्राप्त होती है, देवों-विद्वानों ने निश्चय ही यह विचार नहीं दिया, अर्थात् केवल भूखे व्यक्ति ही मरते हैं, देवों ने यह ही नहीं माना (उत् आशितं मृत्यव: उपगच्छन्ति) मृत्युएं भर पेट खाए पिये मनुष्यों को भी प्राप्त होती ...