Skip to main content

महर्षि दयानन्द का यज्ञ विषयक् वैज्ञानिक पक्ष



महर्षि दयानन्द का यज्ञ विषयक् वैज्ञानिक पक्ष

लेखक- पं० वीरसेन वेदश्रमी
प्रस्तोता- डॉ विवेक आर्य, प्रियांशु सेठ

यज्ञ में मन्त्रोच्चारण कर्म के साथ आवश्यक है-

महर्षि स्वामी दयानन्द जी ने यज्ञ की एक अत्यन्त लघु पद्धति या विधि हमें प्रदान की जो १० मिनट में पूर्ण हो जावे। उसमें मन्त्र के साथ कर्म और आहुति का योग किया। बिना मन्त्र के यज्ञ का कोई कर्म, यज्ञ का अंग नहीं बन सकता। बिना मन्त्र उच्चारण किये किसी भी पदार्थ को अग्नि में जला देने से, वह यज्ञाहुति का स्वरूप प्राप्त नहीं कर सकती और न वह उस महान् लाभ को भी उत्पन्न करने में उतनी समर्थ हो सकती है। इसलिए विधिवत् यज्ञ करने से ही यथोचित लाभ होगा, अन्यथा नहीं।

यज्ञ की प्रथम क्रिया और प्रथम मन्त्र का भाव-

भगवान् दयानन्द ने प्राणिमात्र पर अपार दया करके यज्ञ की प्रथम क्रिया प्रारम्भ करने के लिए एक छोटा सा मन्त्र दिया। कहा कि इस महान् कार्य के लिये अग्नि प्रदीप्त करना हो तो- ओ३म् भूर्भुवः स्व:- यह छोटा सा मन्त्र बोलकर घृत का दीपक प्रज्वलित कर लेना। क्योंकि यही घृत दीप की मूलाधार प्रारम्भ ज्योति ही व्याप्त रूप में विराट बनकर भू अर्थात् पृथिवी, भुवः अर्थात् अन्तरिक्ष और स्व: अर्थात् द्युलोक के लिये ओ३म् रक्षा करने वाली है। इसी घृत युक्त अग्नि शिखा में भू: अर्थात् प्राणों को उत्पन्न करने की शक्ति है। इसी में भुवः अर्थात् दुखनाशक शक्ति है और इसी में स्व: अर्थात् लोक और परलोक का समस्त सुख प्रदान करने की शक्ति है।

यज्ञ में द्वितीय क्रिया और उसका मन्त्र-

केवल घृत का दीपक जलाने से यज्ञ नहीं हो जाता। इस घृत दीप की अग्नि से कपूर को प्रज्वलित कर चन्दनादि की समिधा रखकर उसे एक पात्र में रखना चाहिए और- ओ३म् भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना०- यह सम्पूर्ण मन्त्र बोलकर कुण्ड मध्य में उसे स्थापित करना चाहिए। मन्त्रों में जो अपूर्व विज्ञान भरा है वह मन्त्र बोलने से ही जाना जाता है। बिना मन्त्र के वह प्रकाशित नहीं होता।

द्वितीय क्रिया के मन्त्र का भाव-

इस अग्न्याधान मन्त्र का भाव निम्न प्रकार हृदयंगम करना चाहिए। ओ३म् भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना= यह भूर्भुवः स्व: आदि तीन ज्योतियों से युक्त अग्नि है जो प्रकाशमय द्यु लोक के समान महान्, विशाल और पृथिवीव वरिम्णा= अन्तरिक्ष के समान महिमाशाली है, सामर्थ्यवान् एवं सर्व सुखोत्पादक है। तस्यास्ते पृथिवी देवयजनि पृष्ठे= उस देव यजनि अर्थात् देवों की यज्ञस्थली पृथिवी के ऊपर- अग्नि- मन्नादं= अन्नों के पक्व करने वाली अग्नि को- अनाद्यादधे= अन्नों को भोज्य रूप प्रदान करने के लिए स्थापित करता हूं। अन्नों को भोज्य रूपता प्रदान करने का एक गूढ़ तात्पर्य यह है कि यज्ञ से जो अन्न की उत्पत्ति एवं पक्वता होती है उस अन्न में से विष का भाग दूर होता जाता है। उसमें रोगोत्पादकता का दोष नहीं होता और वह अन्न अत्यन्त स्वादिष्ट, बल, वीर्य, बुद्धिवर्धक तथा पुष्टिकारक हो जाता है।

तृतीय क्रिया उसका मन्त्र और भाव-

इस प्रकार पूर्वोक्त मन्त्र पूर्वक अग्नि स्थापन क्रिया होने पर तीसरी क्रिया- ओ३म् उद्बुध्यस्वाग्ने० मन्त्र से उस अग्नि को प्रदीप्त करने से सम्बन्धित है। उस स्थापित अग्नि को लक्ष्य में रख भावना करनी चाहिए कि ओम् उद्बुध्यस्वाग्ने- अर्थात् हे अग्नि तू ऊपर की ओर बढ़, प्रतिजागृहि- अत्यन्त प्रदीप्त हो, क्योंकि- त्वमिष्टापूर्ते संसृजेथाम्- अर्थात् तुम हमारे लिए इष्ट अर्थात् अभीष्ट सिद्धि, इष्ट भोगों के दाता हो, तुम हमारी समस्त इष्टियाँ- यज्ञयागादि- के साधक हो और आपूर्त्त अर्थात् कुंआ, बावड़ी, तालाब, उद्यान, गृह, भवन आदि की पूर्ति करने वाले अर्थात् उनको भरने, पूर्ण करने वाले हो।

चतुर्थ क्रिया ३ समिधादान चार मन्त्रों से ३ अग्नियों के लिए यज्ञ की आधारभूत प्रक्रिया से पूर्वोक्त मन्त्र में समिधा का कार्य प्रथम है। अतः अग्नि प्रदीप्त होने पर उसमें समिधादान की क्रिया करनी चाहिए। अतः ४ मन्त्रों से ३ समिधादान की क्रिया का विधान किया गया है। ४ मन्त्र चारों दिशा अर्थात् समस्त दिशाओं के बोधक हैं। उन समस्त दिशाओं का पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ या भू:, भुवः, स्व: इन तीन रूप से विभाग है। इन तीन स्थलों में तीन प्रकार की अग्नियाँ हैं। पृथिवी लोक की अग्नि को पवमान कहा गया- अन्तरिक्ष लोक की अग्नि को पाबक कहा गया और द्यु स्थानीय अग्नि को शुचि कहा गया है। अतः तीनों अग्नियों के लिए ३ समिधादान की क्रिया का विधान किया गया। इन तीनों समिधाओं द्वारा इस स्थापित यज्ञाग्नि को तीनों लोकों में क्रियाशील करके यज्ञ को ब्रह्माण्ड में व्याप्त किया जाता है। समिधादान के चार मन्त्रों के अन्त में जो- इदं न मम- का पाठ है वह ध्यान देने योग्य है। प्रथम मन्त्र में इदमग्नये जातवेदसे, द्वितीय मन्त्र में इदमग्नये, तृतीय मन्त्र में- प्रथम मन्त्रवत् पाठ है और चतुर्थ मन्त्र में इदमग्नये अङ्गिरसे- पाठ है। अर्थात् तीन ही अग्नि हैं। एक अग्नि, दूसरी अङ्गिरस, तीसरी जातवेद। अतः तीन अग्नियों की समिधा हुई।

पांचवी क्रिया पांच घृत आहुतियां-

समिधाग्नि दुवस्यत, इसके बाद- घृतैर्बोधयतातिथिम्- पद है। पहले पद समिधाग्निं दुवस्यत के अनुसार समिधादान की क्रिया सम्पूर्ण हो गई अतः घृतैर्बोधयतातिथिम्- की क्रिया होनी चाहिए। अतः ५ घृताहुतियों का विधान किया गया।

पांच घृताहुति क्यों? (१)

इस ब्रह्माण्ड में पूर्वोक्त तीनों लोकों में तीन अग्नियों से तथा तीन लोक रूपी समिधाओं से ५ अग्नियां क्रियाशील होती हैं। उससे सबकी रचना व पालन होता है। उपनिषदों में तथा शतपथब्राह्मण में उसे पञ्चाग्नि कहकर वर्णन किया है। अतः पांच अग्नियों के लिये ५ घृताहुति का एक कर्म रखा गया है।

पांच घृताहुति क्यों? (२)

जगत् पर दृष्टिपात करें तो यह पांच भौतिक ही है। प्राणिजगत् को देखें तो यह पांच प्राणों से ही जीवित है और मनुष्य की प्रधान रूप से पांच ही कामनाएं- प्रजा, पशु, ब्रह्म, तेज, अन्न (भोजन) एवं उपभोग शक्ति है। पंच घृताहुति मन्त्र में ही इन्हीं पांच से अपने को समिद्ध एवं समृद्ध करने की यज्ञ से प्रार्थना है। अतः ५ घृताहुति का विधान यज्ञ में करने से पंच, भूत, पंच प्राण के लिए आहुति से उनकी पुष्टिपूर्वक अपनी पंच सूत्री योजना की पूर्ति का भाव है।

षष्ठक्रिया जलसिंचन

पञ्च घृताहुतियों से जब हमने अग्नि को- इध्यस्व वर्धस्व किया तो अग्नि से उस स्थान विशेष में तापाधिक्य होगा ही। ताप की वृद्धि से उस तृप्त वायुमण्डल की परिधि के बाहर चारों ओर का जो वायु का आचरण होगा वह अपेक्षाकृत अर्द्रतापूर्ण होगा। अर्थात् ताप के चारों ओर आर्द्रता का मण्डल स्वभावतः संचित या निर्मित होता है इसी रहस्य को यज्ञ में भी प्रकट करने के लिए पांच घृताहुतियों के पश्चात् जलसिंचन का विधान है। अर्थात् सृष्टि की कार्य प्रणाली में अग्नि होने पर, ताप होने पर जल अवश्य प्रकट होता है। उपनिषद्कारों ने इसीलिए अग्नेरापः= अर्थात् अग्नि से जल की उत्पत्ति कहा है। हमारे शरीर में भी जब अग्नि-ताप बढ़ जाता है तो जल से ही उसना शमन सन्तुष्टि होती है। अग्नि में यदि जल डालेंगे तो अग्नि शान्त हो जायेगी। अग्नि को तो प्रदीप्त रखना है, अतः अग्नि के चारों ओर जल सिंचन करके जल का मण्डल बनाकर, ताप के चारों ओर आर्द्रता स्थापित एवं उत्पन्न हो जाती है। जो सृष्टि विज्ञान के स्वरूप का प्रदर्शन ही है।

सप्तमक्रिया-आघारावाज्य आहुतियां

जल सिंचन के पश्चात्- अग्नये स्वाहा- की आहुति से सोम की उत्पत्ति होती है। क्योंकि ताप के साथ जलीय अंश मिश्रित होने लगा। उस उत्पन्न सोम के लिए आहुति सोमाय स्वाहा- से देनी चाहिए। इन दोनों अग्नि और सोम शक्तियों से प्रजनन अर्थात् प्रजापति शक्ति और बल पराक्रम अर्थात् इन्द्र शक्ति का सृष्टि में संचार होता है। इसी को प्रजापतये स्वाहा- और इन्द्राय स्वाहा- के रूप में आहुति देकर सृष्टि में इन शक्तियों को सामर्थ्यवान् बनाया जाता है,

यज्ञ प्रातःकाल एवं सायंकाल करना चाहिए

सृष्टि में अग्नि और सोम का उद्गम तथा उनकी परस्पर में आहुतियां प्रातःकाल सूर्योदय होने पर प्रारम्भ होने लगती है जिससे प्रजापति एवं इन्द्र शक्ति सामर्थ्य का वर्धन होता है। वही क्रम सायंकाल भी होता है। जब सृष्टि में प्रकृति का यह यज्ञ प्रारम्भ हो तो हमें भी अपना यज्ञ सूर्योदय एवं सूर्यास्त समय में करना चाहिए। अहोरात्र की सन्धियों में किया गया यज्ञ अहोरात्र में व्याप्त हो जाता है।

यज्ञ की २४ आहुतियों का काल से साम्य

यज्ञ में २४ आहुतियां हैं। काल भी अहोरात्र रूप से २४ घण्टों के रूप में विभक्त है। २४ घण्टों का अहोरात्र का काल है। प्राचीन ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से ६० घटिका (घड़ी) का अहोरात्र होता है। जिससे एक घड़ी २४ मिनट की हो जाती है। इस प्रकार दैनिक यज्ञ का सम्बन्ध जहां सृष्टि के तत्वों से है वहां साथ ही अहोरात्र के काल से भी है। इस प्रकार काल सृष्टि से भी यज्ञ गायत्री स्वरूप में स्थित है।

अष्टम क्रिया प्रातःकालीन होम को ४ आहुतियां

इस प्रकार से यज्ञ पृथिवी के अन्तरिक्ष को क्रियाशील करता हुआ द्यु लोकस्थ अग्नि अर्थात् सूर्य से सम्बन्ध स्थापित करता है जिससे अग्नि में दी गई आहुतियां सूर्यमण्डल में पहुंचती हैं। उस समय सूर्यो ज्योतिर्ज्योति सूर्य: स्वाहा- आदि मन्त्रों से ४ आहुतियां दी जाती हैं।

नवम क्रिया ४ व्याहृति आहुतियां

सूर्य मण्डल को प्राप्त आहुतियों से इस त्रिलोकी में बस भू:, भुवः, स्व: लोकों में अग्नि, वायु और आदित्य से प्राण, अपान और व्यान प्रवाह गति करता है। अतः भूरग्नये प्राणाय स्वाहा- आदि ४ मन्त्रों की आहुतियों का विधान किया गया है। इस प्रकार सृष्टिक्रिया विज्ञान रहस्य की प्रक्रिया के बोध के लिए यज्ञ का अनुष्ठान समादरणीय प्रतीत होने लगता है।

दशम क्रिया आपो ज्योति० मन्त्र से आहुति

यज्ञ की पूर्वोक्त प्रक्रिया अब हमें परम लक्ष्य की ओर भी ले जाती है। सृष्टि में जो यज्ञ चल रहा है उसका संचालक परब्रह्म ओ३म् ही है। जल और अग्नि (तेज ज्योति) ही इस विश्व में प्रधान रूप से कार्य कर रहे हैं। वृक्ष, वनस्पति, अन्न, फलादि में इन दोनों के कारण रस उत्पन्न हो रहा है। अर्थात् आपो ज्योति रस: यह क्रम चल रहा है और उस रस में- अमृतं- जीवन विद्यमान है। अतः मन्त्र- आपो ज्योति रसो अमृतम् इस क्रम से अमृत के सञ्चार करने वाले जीवनदाता- ब्रह्म की ओर बढ़ने को कहता है। वही सर्वाधार, सर्वव्यापक, सब सुखों का दाता, सब दुःख हर्त्ता, सर्वरक्षक भू:, भुवः, स्व: इन तीनों लोकों में ऋग्यजु: साम में व्याप्त ओ३म् परम लक्ष्य है। उसे प्राप्त करने के लिए ओ३म्- आपो ज्योति रसो अमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम् स्वाहा- मन्त्र से आहुति का विधान किया है। यह यज्ञ प्रक्रिया सृष्टि विज्ञान के माध्यम से अन्ततोगत्वा परब्रह्म तक हमें ले जाती है। आध्यात्म पक्ष में आप: ही श्रद्धा है उससे उत्तरोत्तर सूक्ष्मता प्रकाश आनन्द अमृत, (मोक्ष सुख) ब्रह्म की प्राप्ति, ब्रह्म के भूर्भुवः स्व: भर्ग की प्राप्ति होती है। जिससे जीवन उन्नत होता है।

ग्यारहवीं क्रिया ३ याचनायें प्रभु से

इस सम्पूर्ण यज्ञ की क्रिया के करने के उपरान्त ३ मन्त्रों से निम्म याचनायें की गई हैं-

(१) यां मेधां देवगणा:- इस मन्त्र में मेधावी करने की याचना।
(२) विश्वानि देव- इस मन्त्र से सर्व दुःखादि दूर और कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव की प्राप्ति की याचना।
(३) अग्ने नय सुपथा राये- इस मन्त्र से ऐश्वर्य युक्त सुपथ की प्राप्ति की निष्पाप जीवन करने की याचना है जिससे परमात्मा की उपासना, यज्ञादि शुभकर्मों में बार-बार प्रवृत्ति होती रहे। अतः उपरोक्त तीन मन्त्रों से आहुति का विधान यज्ञ में किया गया है।

बारहवीं क्रिया- पूर्णाहुति

यज्ञ की यह सौरभ सर्वत्र व्याप्त हो- सभी को इसका शुभ लाभ परमात्मा प्रदान करें और अपना शुभ आशीर्वाद प्रदान करें अतः ओ३म् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा। मन्त्र को तीन बार बोलते हुए तीन आहुतियां प्रदान की जाती हैं। ओ३म् भूर्भुवः स्व: कहकर जिस यज्ञाग्नि को प्रदीप्त किया था जो तीन प्रकार की हैं तीनों लोकों में व्याप्त है उसी के लिए अन्त में पुनः आहुतियों से यज्ञ क्रिया पूर्ण ही जाती है।

यज्ञ महाविज्ञान है।

इस दृष्टि से देखने पर यज्ञ सृष्टि विज्ञान, प्रकृति विज्ञान, मनोविज्ञान, आध्यात्म विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, वायुमण्डल शोधन विज्ञान आदि अनेक विद्या विज्ञानों से ओत-प्रोत है। अतः यज्ञ महाविज्ञान् है। इस संक्षिप्त लेख में इसका कुछ लाभ प्रदर्शित किया है आशा है पाठकगण इस यज्ञ कार्य में रुचि-ग्रहण कर यज्ञ को अपनायेंगे।

Comments

Popular posts from this blog

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो!

मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो! वर्तमान समय में मनुष्यों ने भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय अपनी मूर्खता से बना लिए हैं एवं इसी आधार पर कल्पित धर्म-ग्रन्थ भी बन रहे हैं जो केवल इनके अपने-अपने धर्म-ग्रन्थ के अनुसार आचरण करने का आदेश दे रहा है। जैसे- ईसाई समाज का सदा से ही उद्देश्य रहा है कि सभी को "ईसाई बनाओ" क्योंकि ये इनका ग्रन्थ बाइबिल कहता है। कुरान के अनुसार केवल "मुस्लिम बनाओ"। कोई मिशनरियां चलाकर धर्म परिवर्तन कर रहा है तो कोई बलपूर्वक दबाव डालकर धर्म परिवर्तन हेतु विवश कर रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक सम्प्रदाय साधारण व्यक्तियों को अपने धर्म में मिला रहे हैं। सभी धर्म हमें स्वयं में शामिल तो कर ले रहे हैं और विभिन्न धर्मों का अनुयायी आदि तो बना दे रहे हैं लेकिन मनुष्य बनना इनमें से कोई नहीं सिखाता। एक उदाहरण लीजिए! एक भेड़िया एक भेड़ को उठाकर ले जा रहा था कि तभी एक व्यक्ति ने उसे देख लिया। भेड़ तेजी से चिल्ला रहा था कि उस व्यक्ति को उस भेड़ को देखकर दया आ गयी और दया करके उसको भेड़िये के चंगुल से छुड़ा लिया और अपने घर ले आया। रात के समय उस व्यक्ति ने छुरी तेज की और उस...

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर

मानो तो भगवान न मानो तो पत्थर प्रियांशु सेठ हमारे पौराणिक भाइयों का कहना है कि मूर्तिपूजा प्राचीन काल से चली आ रही है और तो और वेदों में भी मूर्ति पूजा का विधान है। ईश्वरीय ज्ञान वेद में मूर्तिपूजा को अमान्य कहा है। कारण ईश्वर निराकार और सर्वव्यापक है। इसलिए सृष्टि के कण-कण में व्याप्त ईश्वर को केवल एक मूर्ति में सीमित करना ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव के विपरीत है। वैदिक काल में केवल निराकार ईश्वर की उपासना का प्रावधान था। वेद तो घोषणापूर्वक कहते हैं- न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः। हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।। -यजु० ३२/३ शब्दार्थ:-(यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति (न अस्ति) नहीं है (एषः) वह (हिरण्यगर्भः इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से हिरण्यगर्भ है। (यस्मात् न जातः इति एषः) जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा जो प्रसिद्ध है। स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्य...

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती

ओस चाटे प्यास नहीं बुझती प्रियांशु सेठ आजकल सदैव देखने में आता है कि संस्कृत-व्याकरण से अनभिज्ञ विधर्मी लोग संस्कृत के शब्दों का अनर्थ कर जन-सामान्य में उपद्रव मचा रहे हैं। ऐसा ही एक इस्लामी फक्कड़ सैयद अबुलत हसन अहमद है। जिसने जानबूझकर द्वेष और खुन्नस निकालने के लिए गायत्री मन्त्र पर अश्लील इफ्तिरा लगाया है। इन्होंने अपना मोबाइल नम्बर (09438618027 और 07780737831) लिखते हुए हमें इनके लेख के खण्डन करने की चुनौती दी है। मुल्ला जी का आक्षेप हम संक्षेप में लिख देते हैं [https://m.facebook.com/groups/1006433592713013?view=permalink&id=214352287567074]- 【गायत्री मंत्र की अश्लीलता- आप सभी 'गायत्री-मंत्र' के बारे में अवश्य ही परिचित हैं, लेकिन क्या आपने इस मंत्र के अर्थ पर गौर किया? शायद नहीं! जिस गायत्री मंत्र और उसके भावार्थ को हम बचपन से सुनते और पढ़ते आये हैं, वह भावार्थ इसके मूल शब्दों से बिल्कुल अलग है। वास्तव में यह मंत्र 'नव-योनि' तांत्रिक क्रियाओं में बोले जाने वाले मन्त्रों में से एक है। इस मंत्र के मूल शब्दों पर गौर किया जाये तो यह मंत्र अत्यंत ही अश्लील व...