स्वामी दयानंद और राजधर्म [स्वामी दयानंद सरस्वती की 200 वीं जयंती पर विशेष रूप से प्रकाशित] -प्रियांशु सेठ उन्नीसवीं शताब्दी के महान् दार्शनिक चिन्तक स्वामी दयानंद सरस्वती भारतवर्ष में आत्मनिर्भरता, स्वतंत्रता और संप्रभुता का संचार करना चाहते थे। सन् 1947 से पूर्व का भारत तो पराधीनता की बेड़ियों में बंधा था, लेकिन महाभारत के बाद का भारत तो कुप्रथाओं की कटपुतली बनकर झूम रहा था। स्वामी दयानंदजी ने अपने दूरदर्शी चिन्तन से इन कुप्रथाओं (Malpractices) को मनुष्य जाति से मुक्त करने का प्रयास किया। उन्होंने स्वराज्य, स्वधर्म, स्वभाषा का आंदोलन चलाया और अंधविश्वास (Superstition), हीनदेवतावाद (Pantheism) या अनेकेश्वरवाद (Polytheism), मूर्तिपूजा (Iconolatry), छुआछूत (Untouchhability), बाल विवाह, सती प्रथा, जातिवाद और वेदों के निरंतर ह्रास आदि का पुरजोर विरोध करते हुए वेदों का सही स्वरूप, वर्ण-व्यवस्था, पुनर्विवाह, स्त्री-शिक्षा, शूद्राधिकार, अग्निहोत्र, एकेश्वरवाद, गौरक्षा, कृषि इत्यादि का शंखनाद किया। इसी क्रम में स्वामीजी ने अपना चिंतन राजधर्म पर भी प्रकट किया- "(त्रीणि राजाना) ...