मैं आर्य समाजी कैसे बना? [भाग ७] -स्व० श्री महात्मा हंसराज जी अपने ग्राम में मैंने केवल एक बार किसी वृद्ध व्यक्ति से सुना था कि लाहौर में एक साधु आया हुआ है, जो ईसाइयों से वेतन पाता है तथा हिन्दू धर्म के विरुद्ध उपदेश करता है। उस समय मुझे यह ज्ञात नहीं था कि यह ऋषि दयानन्द है तथा उनका उपदेश क्या है। मेरी आयु उस समय छोटी थी और न ही विद्या की योग्यता थी। जब मैं सन् १८७९ में लाहौर आया तो मेरे बड़े भाई ने जो उस समय डाकघर में कार्य करते थे, मुझे राजकीय विद्यालय में प्रविष्ट करा दिया। उस समय विद्यालय का भवन नहीं था। राजा ध्यानसिंह की हवेली में विद्यालय की श्रेणियां लगा करती थी। सरदार हरिसिंह जो बाद में निरीक्षक (Inspector) होकर विख्यात हुए, मिडल स्कूल के हैडमास्टर थे। मैं कुछ मास उनकी छत्र छाया में विद्या अध्ययन करता रहा। फिर बीमार होने के कारण मैंने राजकीय विद्यालय छोड़ दिया। स्वस्थ होने पर भाई साहब ने मुझे यूकल्ड की शिक्षा स्वयं दी। और फिर रंग महल में मिशन स्कूल में प्रविष्ट करा दिया। मैं वहां पढ़ता रहा। बाबू काली प्रसन चटरजी जो बाद में आर्य समाज के उत्तम सेवक बने, हमारे साथ स्...